भारत में सैकड़ो आध्यात्मिक गुरु पैदा हुए हैं, जिनके कारण भारत को विश्वगुरु कहा गया है। उन्हीं महापुरुषों में से एक संत रविदास हैं, जिन्होंने देश में सभी जातियों और वर्गों के साथ समान व्यवहार करने के लिए लोगों को प्रेरित किया। समाज में फैली बुराइयों को अपने आप से दूर रखने और मानव समाज की सेवा को ही अपना परम धर्म माना। रैदास के नाम से प्रसिद्ध हुए संत रविदास की जयंती पूरे देश में माघ माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है। मंदिरों में भजन कीर्तन होते है तथा जुलुस निकाले जाते हैं।
संत रविदास भारत की मध्ययुगीन संत परंपरा में रविदास या कहें रैदास जी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है. संत रैदास संत कबीर के समसामयिक थे. संत कवि रविदास का जन्म वाराणसी के पास एक गाँव में सन 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था रविवार के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम रविदास रखा गया. रविदास जयंती या रैदास जयंती प्रतिवर्ष हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार माघ माह की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है. इस वर्ष 2024 में यह रविदास जयन्ती 24 फरवरी के दिन मनाई जाएगी।
कैसे मनाई जाती है रविदास जयंती?
देशभर में माघ पूर्णिमा के अवसर पर संत रविदास जी का जन्म दिवस बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन लोग कीर्तन जुलूस निकालते हैं. इस दौरान गीत- संगीत, गाने, दोहे सड़कों पर बने मंदिरों में गाए जाते हैं. संत रविदास जी के भक्त उनके जन्म दिवस के दिन घर या मंदिर में बनी उनकी छवि की पूजा करते हैं. संत रविदास जी का जन्म वाराणसी के पास के गांव में हुआ था. यही कारण है कि वाराणासी में संत रविदास जी का जन्म दिवस बेहद भव्य तरीके से मनाया जाता है. इसमें उनके भक्त सक्रिय रुप से भाग लेने के लिए वाराणसी आते हैं।
गुरु से परिचय
जब संत रविदास ने पाठशाला जाना शुरू किया तो उच्च कुल के बालकों द्वारा तिरस्कार झेलना पड़ा। रविदास के मन की पीड़ा को उनके अध्यापक पंडित शारदा नन्द समझ गए। यहीं से रविदास को अपने अध्यापक का स्नेह प्राप्त होने लगा। रविदास ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। पंडित शारदा नन्द यह समझ गए थे कि बालक रविदास आगे जाकर महान समाज सुधारक के रूप में जाने जायेंगे और ख्याति अर्जित करेंगे।
संत एवं भक्त कवि रविदास
संत शिरोमणि रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत प्रसंगों से भरा है, जो दया, प्रेम, क्षमा, धैर्य, सौहार्द, समानता, सत्यशीलता और विश्व-बंधुत्व जैसे गुणों की प्रेरणा देते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल, भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है. इस काल में अनेक संत एवं भक्त कवि हुए जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरूतियों को समाप्त करने का प्रयास किया. इन महान संतों कवियों की श्रेणी में रैदास जी का प्रमुख स्थान रहा है. वाराणसी में जन्मे संत रविदास जी के पिता जूते बनाने का काम करते थे. रविदाज जी भी अपने पिता की जूते बनाने में मदद करते थे. इस कारण उन्हें जूते बनाने का काम पैतृक व्यवसाय के तौर पर मिला. उन्होंने इसे खुशी से इसे अपनाया और पूरी लगने के साथ वह जूते बनाया करते थे. साधु-संतों के प्रति शुरुआत से ही संत रविदास जी का झुकाव रहा था. जब भी उनके दरबार पर कोई साधु- संत या फकीर बिना जूते चप्पल के आता था, तो वह उन्हें बिना पैसे लिए जूते चप्पल दे दिया करते थे. समाज में फैले भेद-भाव, छुआछूत का वह जमकर विरोध करते थे. जीवनभर उन्होंने लोगों को अमीर-गरीब हर व्यक्ति के प्रति एक समान भावना रखने की सीख दी. उनका मानना था कि हर व्यक्ति को भगवान ने बनाया है, इसलिए सभी को एक समान ही समझा जाना चाहिए. वह लोगों को एक दूसरे से प्रेम और इज्जत करने की सीख दिया करते थे. संत रविदास की एक खासियत ये थी कि वे बहुत दयालु थे. दूसरों की मदद करना उन्हें भाता था. कहीं साधु-संत मिल जाएं तो वे उनकी सेवा करने से पीछे नहीं हटते थे. रविदास जी भक्त, साधक और कवि थे उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती है. रैदास जी ने भक्ति के मार्ग को अपनाया था सत्संग द्वारा इन्होने अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया तथा अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया. प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।। प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।। प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।। प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।। उपर्युक्त पद में रविदास ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त करते हैं. रैदास जी के सहज-सरल भाषा में कहे गये इन उच्च भावों को समझना आम जन के लिए बहुत आसान रहा है. उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है. संत रविदास के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग यह है कि एक साधु ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, चलते समय उन्हें पारस पत्थर दिया और बोले कि इसका प्रयोग कर अपनी दरिद्रता मिटा लेना। कुछ महीनों बाद वह वापस आए, तो संत रविदास को उसी अवस्था में पाकर हैरान हुए। साधु ने पारस पत्थर के बारे में पूछा, तो संत ने कहा कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रखकर गए थे। संत रैदास अपने समय से बहुत आगे थे। एक अन्य घटना अनुसार गंगा-स्नान के लिए रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले – गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य जाता परंतु मैने किसी को आज ही जूते बनाकर देने का वचन दिया है और अगर मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होता है. अत: मन सही है तो इस कठौती के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है. कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि – मन चंगा तो कठौती में गंगा. संत रैदास की निष्ठा इतनी गहरी थी कि पंडित जी ने सुपारी गंगा को भेंट की तो गंगा ने खुद उसे ग्रहण किया। रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है. हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु रविदास जी ने अथक प्रयास किए थे और इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है. वह कहते हैं कि तीर्थ यात्राएँ न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो. का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।
रैदास जयंती महत्व |
रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई भजन बने हैं. संत रविदास जयंती देश भर में उत्साह एवं धूम धाम के साथ मनाई जाती है. इस अवसर पर शोभा यात्रा निकाली जाती है तथा शोभायात्रा में बैंड बाजों के साथ भव्य झांकियां भी देखने को मिलती हैं इसके अतिरिक्त रविदास जी के महत्व एवं उनके विचारों पर गोष्ठी और सतसंग का आयोजन भी होता है सभी लोग रविदास जी की पुण्य तिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। सिख धर्म के अनुयायी भी बड़ी श्रद्धा भावना से, गुरु रविदास जयंती पर गुरुद्वारों में आयोजित करते हैं. इस अवसर पर पूर्णिमा से दो दिन पूर्व, गुरु ग्रंथ साहिब का अखंड पाठ रखा जाता है, और उस पाठ की समाप्ति पूर्णिमा के दिन होती है. इसके पश्चात कीर्तन दरबार होता है, जिसमें रागी जत्था गुरु रविदास जी की वाणियों का गायन करते हैं।
संत रविदास का विवाह
रविदास हमेशा भगवान् की भक्ति में लीन रहते थे और बहुत कम समय अपने पारिवारिक व्यवसाय को दे पाते थे। ऐसे में घरवालों ने उनका विवाह उन्ही के समाज की एक सुशील कन्या लोना देवी से करवा दिया। दोनों को एक पुत्र हुआ जिसका नाम विजयदास रखा गया। विवाह के बाद भी रविदास अपने व्यवसाय पर ध्यान नहीं दे रहे थे। ऐसे में एक दिन उन्होंने अपना घर छोड़ने का फैसला कर लिया ताकि समाज कल्याण के कार्यों को बिना परिवार की रोक टोक के कर सके। उन्होंने अपने घर के पीछे एक छोटी से कोठरी बना ली और वहां रहने लगे।
मीराबाई के गुरु
राजकुमारी मीरा बाई जिनका विवाह बाद में चित्तौड़ के राजा से हुआ, संत रविदास के ज्ञान और प्रवचनों से बेहद प्रभावित हुई और उन्हें अपना गुरु मानने लगी। मीरा बाई ने अपने गुरु के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखी, जो इस प्रकार है। “गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”।
कबीर दास के समकालीन
संत रविदास महान संत कबीर के समकालीन थे। दोनों ही संत रामानंदाचार्य के शिष्य रहे हैं। इस बात का कोई आधिकारिक प्रमाण तो नहीं है, लेकिन कबीरदास जी ने ‘संतन में रविदास’ कहकर उन्हें मान्यता दी थी।
समाज को संदेश
वह एक ऐसा समय था जब समाज में निम्न वर्ग के लोगों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता था। उन्हें मंदिरों में पूजा करने की अनुमति नहीं थी। वे शिक्षा के अधिकार से वंचित थे। वे पक्के मकान नहीं बना सकते, झोंपड़ियों में रहने पर मजबूर थे। रविदास ने लोगों को समझाया कि इंसान की पहचान जाति से नहीं बल्कि उसके कर्मों से होती है। उन्होंने कहा कि ईश्वर ने लोगों को बनाया है और सभी को समानता से जीने का अधिकार दिया है। इसलिए किसी भी प्रकार का भेदभाव करना उचित नहीं है।
सिक्ख धर्म में योगदान
सिक्ख धर्म के पांचवे गुरु अर्जुन सिंह जी ने रविदास के पद तथा भक्ति गीतों को गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित किया है। गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित उनके प्रमुख लेख इस प्रकार है। रागसिरि गौरी असा गुजारी सोरठ, धनसरी जैतसारी सुही बिलावल गौंड रामकली मारू केदारा भाईरऊ बसंत मल्हार।
संत रविदास की कहानियां
संत रविदास के जीवन से जुडी कई प्रेरक कहानियां है जो आमजन को अच्छी सीख देती है। इनमे से कुछ कहानियां इस प्रकार हैं :-
मित्र को दिया जीवन – बाल्यकाल में रविदास अपने परम मित्र के साथ लुकाछुपी खेल रहे थे। जब रविदास की बारी आई, तब तक अँधेरा हो चुका था, इसलिए दोनों मित्रों ने निर्णय लिया कि बाकी का खेल दूसरे दिन खेलेंगे। दूसरे दिन जब रविदास मित्र को बुलाने उसके घर पहुंचे तो देखा कि मित्र के परिजन रो रहे हैं। किसी ने बताया कि उनके मित्र की मृत्यु हो गई है। रविदास ने मित्र के शव के समीप जाकर उससे कहा कि मित्र यह सोने का नहीं बल्कि खेलने का वक्त है। उठो और खेल को पूरा करो। इसके साथ ही शव में जान आ गई और मित्र जीवित हो उठा। इसे देख उपस्थित लोग आश्चर्यचकित रह गए।
बाबर को किया प्रभवित – मुग़ल बादशाह बाबर ने रविदास की महिमा सुनकर उनसे मिलने का फैसला किया। वह अपने पुत्र हुमायूँ को लेकर रविदास के पास पहुंचा और उनके पैर छुए। उनसे प्रभावित होकर वह संत रविदास का अनुयायी बन गया और दिल्ली लौट कर गरीबों की सेवा करने लगा।
ब्राह्मण मित्र के जीवन की रक्षा – एक बार रविदास ने एक ब्राह्मण बालक की रक्षा शेर से की। इससे वह ब्राह्मण बालक उनका मित्र बन गया। जब राजा को इस मित्रता के बारे में पता चला तो उन्होंने गुस्से में दोनों को महल में बुलवाया और ब्राह्मण बालक को फिर से शेर के सामने डाल दिया। जैसे ही शेर ने रविदास को देखा, वह शांत होकर दूर चला गया। राजा को अपने कर्म पर बड़ी शर्मिंदगी हुई और उसने संत रविदास से माफ़ी मांगी।
नगर सेठ को पढ़ाया पाठ – एक बार एक नगर सेठ संत रविदास के प्रवचन सुनने पहुंचा। प्रवचन समाप्त होने के बाद रविदास ने सभी को पीने के लिए जल दिया। सभी ने श्रद्धा के साथ जल ग्रहण किया लेकिन नगर सेठ ने उस पानी को गन्दा जान कर घृणा की और जल को फेंक दिया। जल के कुछ छींटे उसके कपड़ों पर गिर गए। नगर सेठ ने घृणा के मारे वो कपडे एक गरीब कोढ़ी व्यक्ति को दे दिए। जैसे ही कोढ़ी व्यक्ति ने वो कपडे पहने, उसका रोग ठीक होने लगा। इसके विपरीत नगर सेठ कोढ़ से ग्रसित हो गया। नगर सेठ को अपनी गलती का अहसास हुआ और वो संत रविदास की शरण में चला गया, जहाँ रविदास ने दया भाव दिखते हुए उसका रोग ठीक कर दिया।
मित्रों के साथ गंगा स्नान – एक बार उनके मित्र ने गंगा स्न्नान करने चलने का आग्रह किया। दोनों जाने ही वाले थी कि तभी रविदास को याद आया कि उन्होंने किसी को जूते बना कर देने का वादा किया था। अगर वे गंगा स्नान के चले जाते तो समय पर उस व्यक्ति को जूते उपलब्ध नहीं करवा पाते। उन्होंने अपने मित्र को गंगा स्नान से यह कहते हुए मना कर दिया कि अगर वे गंगा स्नान के लिए गए तो उनका ध्यान अपने काम पर ही लगा रहेगा और ऐसे में गंगा स्नान का क्या फायदा। इसी के बाद “मन चंगा तो कटौती में गंगा” कहावत शुरू हो गई।
संत रविदास की मृत्यु – संत रविदास के मृत्यु के सही वक्त का पता किसी को नहीं है लेकिन यह माना जाता है कि 120 – 126 साल की उम्र में उनकी मृत्यु वाराणसी में हो गई।
गुरु रविदास मानवीय एकता के प्रबल समर्थक एवं जातिगत भेदभाव के प्रबल विरोधी थें. गुरु रविदास ईश्वरीय शक्ति में पूर्ण यकीन और विश्वास रखते थें. उनकी वाणियों में उनके विचार स्पष्ट रुप से कहते हैं कि, इस धरती पर जन्मा कोई भी व्यक्ति अपनी जाति या जन्म की वजह से नहीं अपने कर्म के कारण ही ऊंचा या नीचा होता है. ये गुरु रविदास के ही विचार थें कि, “मन चंगा तो कठौती में गंगा!”, अर्थात मन शुद्ध हो तो घर की कठौती का जल ही गंगाजल समान पवित्र हो जाता है. गुरु रविदास ने संदेश दिया कि परमात्मा ने इंसान की रचना की है, न कि इंसान ने परमात्मा का सृजन किया है. अतः सभी मानवों के अधिकार समान है. गुरु रविदास की विचारधारा से ही प्रभावित होकर, तत्कालीन चित्तौड़ साम्राज्य के राजा और रानी भी, उनके शिष्य बन गए थे।