भारतीय दंड संहिता की धारा 375 की व्याख्या साफ और स्पष्ट है। पोजीशन का गलत उपयोग कर करियर में बेहतरी का लालच देकर किसी के साथ जिस्मानी संबंध कायम करना रेप की श्रेणी में आता है। शराब या नशे की हालत में भी बने संबंध रेप के दायरे में आते हैं फिर चाहे महिला की सहमति ही क्यों न हो। यह फिल्म रेप की इन व्याख्याओं और कानून के दुरुपयोग दोनों पहलुओं पर गंभीर विमर्श करने की कोशिश करती है और एक सवाल उठाती है कि अगर कोई इस सेक्शन की व्याख्याओं को हथियार बनाकर अपने हित साधने लगे तो तब इंसाफ कैसे होगा?
सेक्शन 375 और फिल्म का कनेक्शन
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वर्क प्लेस पर महिलाओं के शोषण और रेप के मामले में हिंदुस्तान के शहरों को रेप कैपिटल के तौर पर पेश किया जाता रहा है। जबकि बाकी मुल्कों के आंकड़े कुछ और हैं। एक और चीज कि सुबूतों और कानूनी तकनीकियां ही कई बार सच का गला घोंट सकती हैं। फिल्म धारा 375 को, कानून के उस बुनियाद से विरोधाभासी बताती है कि भले सौ गुनहगार बच जाएं, पर एक बेकसूर को सजा न हो।
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बहरहाल, शादीशुदा रोहन खुराना फिल्म डायरेक्टर है। उस पर आरोप है कि उसने गरीब तबके से आने वाली कॉस्ट्यूम असिस्टेंट अंजलि दांगले को सपने दिखाकर पहले जिस्मानी शोषण किया और फिर उसका रेप किया। मेडिकल रिपोर्ट्स उसके खिलाफ हैं। रोहन के अपने तर्क हैं। वे ये कि उन दोनों के आपसी संबंध मर्जी से हुए मनमर्जी से नहीं। मगर उसके तर्क सेक्शन 375 के सामने ठहर पाते हैं कि नहीं, फिल्म उसे पेश करती है। रोहन का डिफेंस लॉयर तरुण सलूजा है। अंजलि की प्रॉसिक्यूटर हीरल गांधी है।
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बीए पास जैसी क्रिटिकल एक्लेम फिल्म बना चुके अजय बहल यहां मुद्दे पर बहुत जल्द आते हैं। सेक्शन 375 के सदुपयोग और दुरूपयोग के गंभीर विमर्श को छेड़ते हैं। वे मीडिया ट्रायल, पुलिसिया जांच प्रक्रिया और न्याय प्रणाली की खूबियों खामियों में भी जाते हैं। एक कोशिश यह जरूर हुई है कि जज भी ऐसे मामलों में मीडिया ट्रायल से अफेक्ट होते हैं कि नहीं, उसमें गए हैं। पर अजय जाने- अनजाने में सॉफ्ट कॉर्नर रेप के आरोपी की तरफ हो गए हैं।
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रोहन खुराना और अंजलि दांगले की दलीलों और दावों का खुला मैदान उनके सामने था। इससे पहले विशाल भारद्वाज ने मेघना गुलजार के साथ मिलकर तलवार में मर्डर के दोनों कोण को जैसा धारदार बनाया था, वैसा तिलिस्म यहां वे रच नहीं सके हैं। यहां डिफेंस लॉयर बड़ी आसानी से प्रॉसिक्यूशन की धज्जियां उड़ाता चला जाता है। इससे फिल्म प्रिडिक्टेबल बन जाती है। हां मेडिकल एग्जामिनर जब रेप विक्टिम से सवाल जवाब करते हैं, वहां फिल्म रॉ होती है। जाहिर होता है कि रेप के बाद की कानूनी प्रक्रियाएं उससे भी ज्यादा तकलीफदेह होती हैं।
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प्रॉसिक्यूटर हीरल गांधी के हिस्से में हैरतअंगेज कर देने वाली दलीलें नहीं थीं। हीरल के रोल में ऋचा चड्ढा के मोनोलॉग्स जरूर थे। लंबी जिरहें थीं, मगर वे असर नहीं छोड़ पा रही थीं। वह वजन ला पाने में नाकाम रहीं। ऐसा उस पक्ष की लचर रायटिंग के चलते महसूस हुआ। तरुण सलूजा के हिस्से में कन्वींस करने वाली दलीलें आईं और उस रोल में अक्षय खन्ना ने सधी हुई अदायगी की। मीरा चोपड़ा अंजलि दांगले की मन:स्थिति को काफी हद तक पेश कर पाईं। रोहन खुरानाके रोल में राहुल भट्ट के कैलिबर का पूरा उपयोग नहीं हो पाया। उस किरदार के ग्रे शेड कम दिखे। वह विक्टिम के तौर पर ज्यादा नजर आया।
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फिल्म अपने वन साइडेड फोकस के प्रति समर्पित रहती है। इस मायने में कि सारे घटनाक्रम तेजी से कट टू कट आते हैं। किरदारों को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं थी। तरुण की पत्नी के रोल में संध्या मृदुल अपनी मौजूदगी मजबूती से रख गईं। गाने नहीं हैं फिल्म में। बैकग्राउंड स्कोर अनुशासन के दायरे में रहते हैं। सहायक कलाकारों में जस्टिस मडगांवकर बने किशोर कदम, जस्टिस इंद्रानी की भूमिका में कृतिका देसाई और करप्ट पुलिस अफसर बने कलाकार ने सधी हुई परफॉर्मेंस दी है। फिल्म को नो नॉनसेंस सुर पकड़ने में मदद की है।