पितृपक्ष में सूर्य दक्षिणायन होता है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दौरान श्राद्ध तृप्त पितरों की आत्माओं को मुक्ति का मार्ग देता है।
कहा जाता है कि इसीलिए पितर अपने दिवंगत होने की तिथि के दिन पुत्र-पौत्रों से उम्मीद रखते हैं कि कोई श्रद्धापूर्वक उनके उद्धार के लिए पिंडदान तर्पण और श्राद्ध करें। लेकिन ऐसा करते हुए बहुत सी बातों का ख्याल रखना भी जरूरी है।
जैसे श्राद्ध का समय तब होता है जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे। यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध करना चाहिए। सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है।
तैत्रीय संहिता के अनुसार पूर्वजों की पूजा हमेशा, दाएं कंधे में जनेऊ डालकर और दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके ही करनी चाहिए। माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में दिशाएं देवताओं, मनुष्यों और रुद्रों में बंट गई थीं, इसमें दक्षिण दिशा पितरों के हिस्से में आई थी।
सोमवार और पितृ पक्ष
चमोली जनपद में बदरीनाथ धाम में अलकनंदा के तट पर ब्रहमकपाल ऐसा स्थान है, जहां पिंडदान करने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। मान्यता है कि बिहार में गया जी में पितर शांति मिलती है किंतु ब्रह्मकपाल में मोक्ष मिलता है। यहां पर पितरों का उद्धार होता है।
पितरों के श्रद्धापूर्वक ब्रह्मकपाल में श्राद्ध करने से सोमवार को सौभाग्य, मंगलवार को विजय, बुधवार को कामा सिद्धि, गुरुवार को धनलाभ और शनिवार के दिन पितृशांति करने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
गरुड़ पुराण में ब्रह्मकपाल पितृ मोक्ष के लिए लिखा है, ‘ब्रह्मकपाल’ में जो अपने पितरों के निमित्त स्वयं या कोई परिवार का सदस्य पिंडदान व तर्पण करता है तो अपने कुल के सभी पितर मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जाते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है। पितृ मोक्ष के बाद श्राद्धकर्म की आवश्यकता नहीं है।’
यह सामग्री है निषेध
– केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।
– आसन में लोहे का आसन इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।
– श्राद्ध सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र से या पत्तल के प्रयोग से करना चाहिए।
– श्राद्ध में सात पदार्थ- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल महत्वपूर्ण हैं।
– तुलसी से पितृगण प्रलयकाल तक प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं।