मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है. ये महीना इस्लाम में बहुत महत्व रखता है. मुस्लिम धर्म में ये पवित्र महीनों में से एक है. रमजान के बाद दूसरा सबसे पवित्र महीना मुहर्रम होता है. इस साल मुहर्रम 07 जुलाई से शुरु हुआ है. और दस दिन का शोक काल 17 जुलाई को खत्म होगा।मुहर्रम का 10वां दिन या 10वीं तारीख को यौम-ए-आशूरा के नाम से जाना जाता है. इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मातम मनाते हैं. मुहर्रम के दौरान, दुनिया भर के शिया मुसलमान पैगंबर मुहम्मद के पोते और हज़रत अली के बेटे इमाम हुसैन की शहादत का शोक मनाते हैं। दस दिनों का यह त्यौहार आशूरा के साथ समाप्त होता है, जब समुदाय शोक जुलूस में भाग लेता है। ये इस्लाम धर्म का प्रमुख दिन माना जाता है. हजरत इमाम हुसैन, इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे थे. कब है आशूरा और इस दिन का ऐतिहासिक महत्व क्या है आइए जानें।
मुहर्रम गम और मातम का महीना है, जिसे इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग मनाते हैं। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, मुहर्रम इस्लाम धर्म का पहला महीना होता है। यानी मुहर्रम इस्लाम के नए साल या हिजरी सन् का शुरुआती महीना है। मुहर्रम बकरीद के पर्व के 20 दिनों के बाद मनाया जाता है। इस बार मुहर्रम का महीना 07 जुलाई से शुरू हुआ है। और 17 जुलाई को आशूरा या मुहर्रम मनाया जाएगा। इस्लाम धर्म के लोगों के लिए यह महीना बहुत अहम होता है, क्योंकि इसी महीने में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे थे। उनकी शहादत की याद में मुहर्रम के महीने के दसवें दिन को लोग मातम के तौर पर मनाते हैं, जिसे आशूरा भी कहा जाता है। चलिए जानते हैं मुस्लिम धर्म के दूसरे सबसे पवित्र माह मुहर्रम के इतिहास, महत्व, हजरत इमाम हुसैन और ताजियादारी के बारे में सबकुछ।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम?
इस्लाम धर्म की मान्यता के मुताबिक, हजरत इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मोहर्रम माह के 10वें दिन कर्बला के मैदान में शहीद हो गए थे। उनकी शहादत और कुर्बानी के तौर पर इस दिन को याद किया जाता है। कहा जाता है कि इराक में यजीद नाम का जालिम बादशाह था, जो इंसानियत का दुश्मन था। यजीद को अल्लाह पर विश्वास नहीं था। यजीद चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन भी उनके खेमे में शामिल हो जाएं। हालांकि इमाम साहब को यह मंजूर न था। उन्होंने बादशाह यजीद के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। इस जंग में वह अपने बेटे, घरवाले और अन्य साथियों के साथ शहीद हो गए।
मुहर्रम की 10वीं तारीख को आशूरा क्यों मनाया जाता है?
मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर (जिसे चंद्र या हिजरी कैलेंडर भी कहा जाता है) के चार पवित्र महीनों में से पहला महीना है। इस्लामी कैलेंडर 12 चंद्र महीनों पर आधारित है, नए चाँद के दिखने पर एक नए महीने की शुरुआत होती है। इस पवित्र महीने के दौरान, मुसलमान किसी भी हराम या पापपूर्ण कार्य से दूर रहते हैं। मुहर्रम 2024 का पहला दिन भारत में 7 जुलाई 2024 को शुरू होगा। इस अवधि के दौरान मुसलमान उपवास, प्रार्थना और आत्म-चिंतन में लगे रहते हैं। मुहर्रम की 10वीं तारीख को मनाया जाने वाला आशूरा दिवस इस्लामी कैलेंडर के सबसे पवित्र दिनों में से एक है क्योंकि:
* ऐसा माना जाता है कि इस अवधि में पैगम्बर मुहम्मद मक्का से मदीना चले गए थे। इस यात्रा को हिजरा कहा जाता है, जो मुस्लिम समुदाय के लिए हिजरा की महत्वपूर्ण घटना है।
* आशूरा का दिन कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत को याद करता है। मुस्लिम समुदाय की एक विशेष शाखा शिया मुसलमान, आशूरा को शोक के दिन के रूप में मनाते हैं।
* यह अल्लाह द्वारा पैगम्बर मूसा (अ.स.) और इस्राएल की संतानों को फिरौन और उसकी सेना से मुक्ति दिलाने की घटना को भी याद करता है, जब वे लाल सागर को दो भागों में विभाजित करके उससे होकर गुजरे थे।
* आशूरा का दिन वह दिन था जब पैगम्बर नूह (नूह) (अ.स.) ने अंततः जहाज़ छोड़ा।
* पैगम्बर ईसा (अ.स.) का जन्म मुहर्रम की 10वीं तारीख को हुआ था।
* पैगम्बर यूसुफ मछली के पेट से बाहर निकले।
* पैगम्बर युसुफ उस कुएं से बाहर आये जिसमें उन्हें फेंका गया था।
मुसलमान भी मानते हैं कि दुनिया का अंत मुहर्रम की 10वीं तारीख को होगा, जैसा कि कुरान में उल्लेख किया गया है।
कौन थे हजरत इमाम हुसैन?
हजरत इमाम हुसैन पैगंबर ए इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब के नवासे थे। इमाम हुसैन के वालिद यानी पिता का नाम मोहतरम ‘शेरे-खुदा’ अली था, जो कि पैगंबर साहब के दामाद थे। इमाम हुसैन की मां बीबी फातिमा थीं। हजरत अली मुसलमानों के धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक मुथिया थे। उन्हें खलीफा बनाया गया था। कहा जाता है कि हजरत अली के निधन के बाद लोग इमाम हुसैन को खलीफा बनाना चाहते थे लेकिन हजरत अमीर मुआविया ने खिलाफत पर कब्जा कर लिया। मुआविया के बाद उनके बेटे यजीद ने खिलाफत अपना ली। यजीद क्रूर शासक बना। उसे इमाम हुसैन का डर था। इंसानियत को बचाने के लिए यजीद के खिलाफ इमाम हुसैन ने कर्बला की जंग लड़ी और शहीद हो गए।
कैसे मनाया जाता है मुहर्रम?
मुहर्रम के 10वें दिन यानी आशूरा के दिन ताजियादारी की जाती है। इमाम हुसैन की इराक में दरगाह है, जिसकी हुबहू नकल कर ताजिया बनाई जाती है। शिया उलेमा के मुताबिक, मोहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख को ताजिया रखी जाती है। इस दिन लोग इमाम हुसैन की शहादत की याद में ताजिया और जुलूस निकालते हैं। हालांकि ताजिया निकालने की परंपरा सिर्फ शिया समुदाय में ही होती है। मुहर्रम की तिथियां ग्रेगोरियन कैलेंडर के आधार पर हर साल अलग-अलग होती हैं क्योंकि इस्लामी कैलेंडर चंद्र चक्र पर आधारित है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया और मोरक्को जैसे देश सऊदी अरब, यूएई, ओमान और अन्य खाड़ी देशों की तुलना में एक दिन बाद मुहर्रम मनाते हैं।
कर्बला की जंग
आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है। यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इनकार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे। इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी। यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी। इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे। जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मोहरर्म थी, और गर्मी का वक्त था। गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के मेंबर और अनुनायी भूखे प्यासे रहे। 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे तब असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह भी मारे गए। इस जंग में इमाम हुसैन का एक बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहमम्द साहब की पीढ़ी चली। इसी कुर्बानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। कर्बला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है।
भारत में कब है मुहर्रम या आशूरा?
भारत में मुहर्रम की शुरुआत 07 जुलाई को हुई है, इसलिए आशूरा 17 जुलाई को है। भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी आशूरा 17 जुलाई को मनाया जा रहा है। वहीं सऊदी अरब, ओमान, कतर, इराक, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात समेत अन्य अरब देशों में मुहर्रम 06 जुलाई से प्रारंभ हुआ है, इसलिए मातम का दिन 16 जुलाई को मनाया जा रहा है।
आशूरा का ऐतिहासिक महत्व
इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार, करीब 1400 साल पहले अशुरा के दिन इमाम हुसैन का कर्बला की लड़ाई में सिर कलम कर दिया था और उनकी याद में इस दिन जुलूस और ताजिया निकालने की रिवायत है। अशुरा के दिन तैमूरी रिवायत को मानने वाले मुसलमान रोजा-नमाज के साथ इस दिन ताजियों-अखाड़ों को दफन या ठंडा कर शोक मनाते हैं।
शिया समुदाय निकालता है ताजिया
आशूरा के दिन इस्लाम धर्म में शिया समुदाय के लोग ताजिया निकालते हैं और मातम मनाते हैं। इराक में हजरत इमाम हुसैन का मकबरा है, उसी मकबरे की तरह का ताजिया बनाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है।
इस्लाम धर्म में यह कोई त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन होता है, जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते हैं। इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल यानी मैसेंजर पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे।
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