इस वर्ष 2023 में महर्षि दयानंद सरस्वती जी की जयंती 15 फरवरी को बुधवार के दिन मनाई जा रही है, वे भारत के महान समाज सुधारक, देशभक्त, शुभचिंतक और आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके विचारों से महात्मा गांधी जैसे कई लोग प्रभावित थे। उन्होंने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और 1857 की क्रांति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आइए आज उनकी बर्थ एनिवर्सरी के मौके पर हम उनकी जीवन परिचय तथा कुछ सुविचारों के बारे में जानने का प्रयास करते है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जो कि आर्य समाज के संस्थापक के रूप में पूज्यनीय हैं. यह एक महान देशभक्त एवम मार्गदर्शक थे, जिन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी. महात्मा गाँधी जैसे कई वीर पुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे. स्वामी जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को हुआ. वे जाति से एक ब्राह्मण थे और इन्होने शब्द ब्राह्मण को अपने कर्मो से परिभाषित किया. ब्राह्मण वही होता हैं जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी. स्वामी जी ने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान से लाभान्वित किया. इन्होने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया. निराकार ओमकार में भगवान का अस्तित्व है, यह कहकर इन्होने वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया.वर्ष 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की. 1857 की क्रांति में भी स्वामी जी ने अपना अमूल्य योगदान दिया. अंग्रेजी हुकूमत से जमकर लौहा लिया और उनके खिलाफ एक षड्यंत्र के चलते 30 अक्टूबर 1883 को उनकी मृत्यु हो गई. स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे. उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवम अन्धविश्वासो का सदैव विरोध किया. उन्होंने समाज को नयी दिशा एवम वैदिक ज्ञान का महत्व समझाया. इन्होने कर्म और कर्मो के फल को ही जीवन का मूल सिधांत बताया. यह एक महान विचारक थे, इन्होने अपने विचारों से समाज को धार्मिक आडम्बर से दूर करने का प्रयास किया. यह एक महान देशभक्त थे, जिन्होंने स्वराज्य का संदेश दिया, जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैं का नारा दिया. देश के कई महान सपूत स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचारों से प्रेरित थे और उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही उन सपूतों ने देश को आजादी दिलाई।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के बारे में जानकारी
नाम – महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती
जन्म नाम – मूलशंकर तिवारीजन्म12 फरवरी 1824 टंकारा, गुजरात
माता-पिता – अमृत बाई – अंबाशंकर तिवारी
धर्म – सनातन धर्म (हिन्दू)
गुरु/शिक्षक – विरजानन्द
कार्य/क्षेत्र – स्वतंत्रता सेनानी, समाज-सुधारक, धर्मगुरु
उपलब्धि – आर्य समाज के संस्थापक, समाज सुधारक, 1857 की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान
मृत्यु – 30 अक्टूबर 1883 अजमेर, राजस्थान
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की जयन्ती कब है? (2022, 2023 और 2024 में)
12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में जन्में स्वामी दयानंद सरस्वती जी की जयंती प्रत्येक वर्ष हिंदू कैलेंडर के अनुसार फागुन महीने की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को मनाई जाती है, इस साल 2023 में 15 फरवरी को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की 200वीं जयंती मनाई जा रही है। स्वामी जी का जन्मदिन हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है, इसलिए अग्रेजी कैलेंडर में यह दिन हर साल अलग-अलग तारीख को पड़ता है। जहाँ 2022 में उनकी जयंती 26 फरवरी को थी तो वहीं अगली साल 2024 में स्वामी जी की जयंती 05 मार्च को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी। स्वामी जी हिंदी भाषा के समर्थक थे तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही भाषा (हिंदी) चाहते थे। उनके पास हिंदू धर्म का जितना भी ज्ञान था वह उसे संपूर्ण भारत देश में फैलाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भारत भ्रमण भी किया और वेदों की ओर लौटों का नारा दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824को टंकारा (गुजरात) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूल शंकर तिवारी था। स्वामी जी के पिता ‘अंबा शंकर तिवारी‘ एक नौकरी पेशा व्यक्ति थे, तथा उनकी माता जी का नाम अमृत बाई था।
महाशिवरात्रि पर घटी इस घटना से बदला स्वामी जी का जीवन:
स्वामी दयानंद सरस्वती जी शुरू से ही अपने पिता का कहना मानते थे, क्योंकि वह एक ब्राह्मण थे इसीलिए उनके परिवार में हमेशा धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे। एक बार की बात है स्वामी जी के पिताजी ने उनसे महाशिवरात्रि का उपवास रख विधि विधान के साथ रात्रि जागरण व्रत करने को कहा। पिताजी के कहे अनुसार मूल शंकर (स्वामी जी) ने उपवास रखा और उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मंदिर में ठहरा, जहां रात्रि में उनके परिवार के सभी सदस्य सो गए, परंतु वह जागते रहे और यह प्रतीक्षा करते रहे कि कब भगवान आएंगे और इस प्रसाद को ग्रहण करेंगे।काफी देर तक इंतजार के बाद अर्ध रात्रि में उन्होंने देखा कि भगवान पर चढ़ाया प्रसाद वहां रहने वाले कुछ चूहों की टोली खा रही थी। यह देख वह काफी आश्चर्यचकित हुए और उनके मन में यह विचार आया कि जब भगवान खुद पर चढ़ाए गए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकते तो वे मानवता की रक्षा क्या करेंगे? इस घटना ने उन्हें काफी प्रभावित किया।
सन्यास और दयानंद सरस्वती बनना
स्वामी जी के बचपन का जीवन काफी अच्छे से बीता परंतु अचानक हुई उनकी बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया, और उनके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया। जिसके बाद, वे काशी जाकर पढना चाहते थे लेकिन उनके पिता उनका विवाह कराना चाहते थे, इसलिए 21 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना घर बार छोड़ दिया। कई वर्षों तक भटकने के बाद मूलशंकर तिवारी, स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से मिले, जिन्होंने उन्हें सन्यासी की दीक्षा दी और 24 वर्ष की आयु में वे एक सन्यासी बन गए। उन्हें दयानंद सरस्वती नाम भी पूर्णानंद जी से ही मिला।
गुरू और गुरू दक्षिणा
ज्ञान और गुरू की तलाश में 13-14 सालों तक भटकने के बाद दयानंद सरस्वती जी स्वामी विरजानंद जी से मिले, वे अंधे थे लेकिन आत्मज्ञान का जीवित रूप थे। इसलिए स्वामी जी ने उन्हें अपना गुरु मानकर मथुरा में ही वैदिक एवं योग शास्त्रों के साथ-साथ ज्ञान की प्राप्ति भी की। जब उन्होंने अपने गुरु स्वामी विरजानंद जी से गुरु दक्षिणा के विषय में पूछा तो उनके गुरूजी ने गुरु दक्षिणा के रूप में उनसे एक प्रण लेने को कहा, और बोले जब तक तुम जीवित रहेंगे तब तक वैदिक शास्त्रों का महत्व लोगों तक पहुंचाते रहोगे और इसे ही अपनी गुरु दक्षिणा बताया। स्वामी जी ने भी अपनी गुरु दक्षिणा के रूप में लिए गए संकल्प को बखूबी निभाया और ‘वेदों की ओर चलो‘ का नारा दिया। उन्हें उनके गुरु द्वारा वेदों शास्त्रों की शिक्षा मिली थी, और उन्होंने संस्कृत, वेदों शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक पुस्तकों का भी अध्ययन किया था।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
स्वामी जी ने सन्यास लेने के बाद से ही अंग्रेजो के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया, देश भ्रमण करने पर उन्हें यह पता चला कि लोगों के अंदर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ काफी ज्यादा आक्रोश है। इसलिए उन्होंने भारत के सभी वर्ग के लोगों को आजादी के लिए जोड़ना शुरु किया। उन्होंने इसकी शुरुआत साधु-संतों को जोड़कर की जिससे साधारण लोग प्रेरणा ले सकें। 1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा और उन्होंने ‘स्वराज का नारा‘ दिया, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने इसे आगे बढ़ाया।
आर्य समाज की स्थापना कब और कहाँ हुई थी?
आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था. इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था. ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए. कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका. बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा. इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी. महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने धर्म सुधार तथा समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 10 अप्रैल 1875 को मुंबई के गिरगांव में गुड़ी पड़वा के दिन आर्य समाज की स्थापना की। जिसका आदर्श वाक्य ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‘ है और इसका हिंदी अर्थ ‘विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो‘ है। आर्यसमाज के सभी सिद्धांत और नियम लोगों के कल्याण के लिए बनाए गए है। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य संसार की भलाई करना, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति पर ध्यान देना है।आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था. इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था. ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए. कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका. बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा. इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी. महर्षि दयानन्द सरस्वती जी को सभी वेदों का सटीक ज्ञान था, साथ ही वह अपने जीवन को पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य, सन्यास और कर्म सिद्धांत के चार स्तंभों पर खड़ा मानते थे।
आर्य भाषा (हिंदी) का महत्व
वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान देते थे, संस्कृत में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संस्कृत भाषा ही थी. बचपन से ही इन्होने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था, इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. एक बार वे कलकत्ता गए और वहाँ केशव चन्द्र सेन से मिले. केशव जी भी स्वामी जी से प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने स्वामी जी को एक परामर्श दिया कि वे अपना व्यख्यान संस्कृत में ना देकर आर्य भाषा अर्थात हिंदी में दे, जिससे विद्वानों के साथ- साथ साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी ने पहुँच सके. तब वर्ष 1862 से स्वामी जी ने हिंदी में बोलना प्रारम्भ किया और हिंदी को देश की मातृभाषा बनाने का संकल्प लिया.हिंदी भाषा के बाद ही स्वामी जी को कई अनुयायी मिले, जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया. आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रान्त में किया गया।
स्वामी जी के सामाजिक योगदान
स्वामी जी 19वीं सदी के महान समाज सुधारकों में से एक है जिन्होंने उस समय फैली बुराइयों और अन्धविश्वासों को दूर करने का काफी प्रयास किया। साथ ही उन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा, जैसी कुरीतियों का भी विरोध किया, हिंदू समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे। इसी कारण उन्हें सन्यासी योद्धाभीभी कहा जाता है। स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना कर इन कुरीतियों को दूर करने की कोशिश की तथा हिंदू ही नहीं अपितु इस्लाम, ईसाई और दूसरे धर्मों में फैली कुरीतियों का भी खंडन किया।
1857 की क्रांति में स्वामी जी जा योगदान योगदान
1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारम्भ किया, उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया, कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं, बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत है, इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया. उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे, इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया. लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया, जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये. इस कार्य के लिये उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारम्भ किया. इन्होने सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा, जिससे उनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके. हालाँकि 1857 की क्रांति विफल रही, लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे, उन्होंने यह बात सभी को समझायी. उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता है, जितना अब तक गुलामी में काटा गया हैं. उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं, क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा. उनके ऐसे विचारों ने लोगो के हौसलों को जगाये रखा. इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने गुरु विरजानंद के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रारम्भ किया और देश में नये विचारों का संचार किया. अपने गुरु के मार्ग दर्शन पर ही स्वामी जी ने समाज उद्धार का कार्य किया।
समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध एवम एकता का पाठ
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने समाज के प्रति स्वयम को उत्तरदायी माना और इसलिए ही उसमे व्याप्त कुरीतियों एवम अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज बुलंद की
बाल विवाह विरोध : उस समय बाल विवाह की प्रथा सभी जगह व्याप्त थी, सभी उसका अनुसरण सहर्ष करते थे. तब स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को इस प्रथा के विरुद्ध जगाया. उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित हैं, मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रम्हचर्य के है, उसके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा हैं. उन्होंने कहा कि अगर बाल विवाह होता हैं, वो मनुष्य निर्बल बनता हैं और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता हैं।
सती प्रथा विरोध ; पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया. परोपकार का संदेश दिया।
विधवा पुनर्विवाह : देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा हैं. विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण हैं. दयानन्द सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस ज़माने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिये अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया।
एकता का संदेश : दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था, जो आज तक अधुरा हैं , वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे. उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं. जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके।
वर्ण भेद का विरोध : उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेद शब्द नहीं, बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं, जिसके अनुसार चारों वर्ण केवल समाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं, जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं अपितु सभी अमूल्य हैं. उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया।
नारि शिक्षा एवम समानता : स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया. उनका मानना था, कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं. उन्होंने नारी को समाज का आधार कहा. उनका कहना था, जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं, जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं।
स्वामी जी के खिलाफ षड़यंत्र
अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था. स्वामी जी के वक्तव्य का देश पर गहरा प्रभाव था, जिसे वे अपनी हार के रूप में देख रहे थे, इसलिये उन्होंने स्वामी जी पर निरंतर निगरानी शुरू की. स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत और उनके ऑफिसर के सामने हार नहीं मानी थी, बल्कि उन्हें मुँह पर कटाक्ष की जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी के सामने स्वयम की शक्ति पर संदेह करने लगी और इस कारण उनकी हत्या के प्रयास करने लगी. कई बार स्वामी जी को जहर दिया गया, लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ.
महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई
1883 में स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर के महाराज के यहाँ गये. राजा यशवंत सिंह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया. उनके कई व्यख्यान सुने. एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी नन्ही जान के साथ व्यस्त थे, तब स्वामी जी ने यह सब देखा और अपने स्पस्ट वादिता के कारण उन्होंने इसका विरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन हैं, ऐसे में ज्ञान प्राप्ति असम्भव हैं. स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये. इस कारण नन्ही जान स्वामी जी से नाराज हो गई और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच के टुकड़े मिला दिए, जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो गया. उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ, लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली. रसौईया ने अपनी गलती स्वीकार कर माफ़ी मांगी. स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया. उसके बाद उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया, लेकिन हालत में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में दुनियाँ से रुक्सत ले ली. अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने राष्ट्र में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगो को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया. यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में स्वराज का संचार किया।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी की जयंती पर उनके अनमोल विचार कोट्स
* दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिए, और आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
* अज्ञानी होना गलत नहीं है, अज्ञानी बने रहना गलत है।
* “काम करने से पहले सोचना… बुद्धिमानी, काम करते हुए सोचना… सतर्कता, और काम करने के बाद सोचना…मूर्खता है”।
* आत्मा अपने स्वरुप में एक है,
लेकिन उसके आस्तित्व अनेक है।
* “ये शरीर नश्वर है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है”।
भारत की उत्कृष्ट वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता की गरिमामयी विरासत मध्यकाल के तमसाच्छन्न युग में लुप्तप्राय हो गई थी। राजनीतिक परतंत्रता तथा पराधीनता के कारण विचलित भारतीय जनमानस को महर्षि दयानंद सरस्वती ने आत्मबोध आत्मगौरव स्वाभिमान एवं स्वाधीनता का मंत्र प्रदान किया।