अभी हाल ही में बच्चों के बोर्ड के हाईस्कूल इंटर और सी.बी.एस.ई.के परिणाम आए हैं। ये परीक्षाएं और इनके परिणाम महत्वपूर्ण होते हैं, खास इसलिए भी क्योंकि ये 10-12 वर्षों की लगातार मेहनत का फल माने जाते हैं। इस समय बच्चों सहित पूरे परिवार का ध्यान केवल बच्चों के अंकों के उतार-चढ़ाव पर ही रहता है जिसके 99 प्रतिशत अंक आते हैं उसे 1 प्रतिशत कम आने का गम घेरता है जिसकी तीसरी पोजीशन होती है उसको दूसरी पोजीशन और दूसरे वाले को पहली रैंक ज्यादा आकर्षित करती है इसलिए खुशियों के माहौल में संतुष्टि नदारद रहती है। रिजल्ट के बाद छात्रों द्वारा खतरनाक कदम उठाने की कई खबरें मीडिया में आने लगी हैं. देखा जाए तो रिजल्ट एजुकेशन सिस्टम का एक हिस्सा भर है, जिसमें परीक्षाओं के बाद उसका परिणाम आता है. लेकिन, इसमें रैंक, नंबर, पर्सेंटेज को लेकर ऐसा हौव्वा क्रिएट कर दिया गया है, जैसे इसी रिजल्ट से बच्चे का पूरा जीवन निर्धारित होने वाला है. चाहे नेशनल एजुकेशन पॉलिसी हो या शिक्षाविद या मनोवैज्ञानिक हर प्लेटफॉर्म से एक बात कही जा रही है कि रिजल्ट को इतना बड़ा हौव्वा मत बनाइए, ये बस एक तरीका है जिससे प्रेरित होकर बच्चे सीखने पर ध्यान दें. फिर भी रिजल्ट के बाद ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जिसमें छात्रों ने आत्महत्या कर ली. यह सोचने का समय है कि आखिर कैसे समाज में रिजल्ट को लेकर पेरेंट्स और बच्चों की मानसिकता में बदलाव लाया जाए।
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके बच्चे पर कामयाब होने का दबाव किस कदर है? हाल में, विभिन्न कक्षाओं के परीक्षा परिणाम घोषित किये गये तो जगह-जगह कामयाब बच्चों की चर्चा हुई, लेकिन जो बच्चे कामयाब नहीं हो सके, उनके लिए क्या कदम उठाए गए! इस रिजल्ट के घोषणाओं के साथ हीपरीक्षा में अच्छे परिणाम नहीं आने और पास नहीं होने कारण कई बच्चों के आत्महत्या करने की खबरें भी लगातार आ रही है। इस पूरे परिदृश्य में एक बार फिर पैरेंटिंग की चर्चा है कि जो बच्चे पास हुए और अपने सपने को पूरा करने के लिए आगे बढ़ गए उनके लिए तो सब अच्छा है, लेकिन जो बच्चे सफल नहीं हो पाए उनके साथ कैसे पेश आया जाए? आज के परिवेश को देखते हुए बच्चों को समझना बेहद ज़रूरी है. ‘साथ ही साथ उनको यह समझाना भी ज़रूरी है कि एक परीक्षा सिर्फ उनका भविष्य तय नहीं कर सकती. हर बार परीक्षा के बाद चर्चा शुरू होती है, लेकिन फिर भी हम सचेत नहीं हो रहे हैं. बच्चे से दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए, लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए नहीं. बच्चे भी आपको अपना दोस्त मानें, ये बेहद ज़रूरी है. तभी वो आपको अपने विचार खुलकर बता पाएंगे।
बच्चों को सताता है सबसे ज्यादा समाज के सवालों का डर!
किसी भी परीक्षा में पास या फेल होने के बाद बच्चों को सबसे ज्यादा डर समाज के सवालों का रहता है. दरअसल बच्चे जब फेल होते हैं, तो उनके दिमाग में सबसे पहला सवाल आता है कि हम आसपास के लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे! लोग पूछेंगे तो क्या बताएंगे? इस कारण वो और खतरनाक कदम उठा लेते हैं. चाइल्ड एक्सपर्ट्स बताते हैं कि ‘परीक्षा परिणाम के बाद बच्चों से बात करनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि कोई उनके लिए जजमेंट नहीं तैयार कर रहा है. असफलता किसी के लिए परमानेंट नहीं होती।
क्या कहते है मोटिवेशन काउंसलर
बोर्ड परीक्षा में फेल हो जाने या प्रतियोगिता परीक्षा का दबाव बर्दाश्त न कर पाने वाले स्टूडेंट्स में हाल के वर्षों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ना हर किसी के लिए बड़ी चिंता का विषय है। हालांकि इसे कोई अचानक उभरने वाली प्रवृत्ति नहीं माना जा सकता। पैरेंट्स और टीचर बच्चे को अच्छी तरह समझें और उन पर बिना कोई दबाव डाले उन्हें उनकी रुचि की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करें, तो ये भी अपनी कामयाबी से घर-परिवार को खुशियों की सौगात दे सकते हैं।
कैसे पहचाने बच्चों की परेशानी
देखें कि बच्चा कुछ दिन से गुमसुम तो नहीं है या अपने में ही तो नहीं रहने लगा है। अगर ऐसा है, तो सतर्क हो जाएं। उससे प्यार से बातें करें। उसकी समस्या समझने का प्रयास करें। कहीं आपके बच्चे को किसी ऑनलाइन गेम की लत तो नहीं लग गई है। वह छिप-छिप करके तो इस तरह के गेम नहीं खेल रहा है। बच्चे को पढ़ाई के लिए कभी-कभी बेशक डांटें, पर उसके बाद उसकी गतिविधियों पर गौर करें। कहीं वह इससे हताश-निराश तो नहीं हो रहा है। उसे समझाएं और प्रोत्साहित करें। अगर परीक्षा में कम आने या फेल होने से वह परेशान है, किसी से बातें करने से बच रहा है, खाने-घूमने में अरुचि दिखा रहा है तो भी उसके साथ बैठें। उसे समझाएं और आश्वस्त करें कि फेल हो गया या कम अंक आ गए तो क्या हुआ। यह कोई जिंदगी की आखिरी परीक्षा तो नहीं है। आगे अभी बहुत सारे मौके आएंगे। कम अंक आने से मुझे नहीं लगता कि तुम प्रतिभाशाली नहीं हो। तुम्हारा मन जिस फील्ड में लगता है, तुम उसी में आगे बढ़ो। हम सभी तुम्हारे साथ हैं।
बच्चों की मानसिक प्रवृत्ति को समझें
पहली बात तो यह है कि हम गौर करें कि बच्चों को पढ़ाई के बारे में बताना जरूरी है, बताना चाहिए, लेकिन पढ़ाई को इतना प्रतियोगी, इतना कांपिटिटिव बना देना ठीक नहीं है. पैरेंट्स का जो ये प्रेशर रहता है, बच्चों के ऊपर- कि, हमारी तो नाक कट जाएगी, इतने नंबर नहीं आए तो हम तो कहीं मुंह नहीं दिखा पाएंगे वगैरह- वो बहुत गलत है. उससे बच्चे धीरे-धीरे समझने लगते हैं कि गलती उन्हीं की है, क्योंकि उनका रिजल्ट नहीं आया. तो, इस तरह का प्रेशर नहीं होना चाहिए. यह एक बात हुई. हालांकि, जो मुख्य मुद्दा है, असल बात है, जो हमारे देश में अभी तक वह बात समझी नहीं गईं. वह बात है मानसिक रोगों और मानसिक प्रवृत्तियों या टेंडेंसी को नहीं समझने की. अगर कोई बच्चा बहुत संवेदनशील है और आप बिना किसी काउंसिलर की सलाह के वह सब्जेक्ट उसे दिलवा देते हैं, जो उसको पसंद नहीं है और फिर आप दबाव बनाते हैं, तो वह गलत होगा. दबाव, जैसे कि मैंने ये चुन दिया है, तुम्हारे लिए तो तुम पढ़ो या मैंने भी पढ़ा था तो तुम भी पढ़ो या मैंने ये सपना देखा है तुम्हारे लिए- अमूमन इस तरह के दबाव पैरेंट्स देते हैं. या फिर, बच्चे को उसके भविष्य का हवाला देकर असुरक्षित करना कि अगर तुमने ठीक से नहीं पढ़ा तो नाक कट जाएगी, तुम किसी काम के नहीं रहोगे- ये बहुत गलत है। फिर, बच्चा घर लौटने के लायक नहीं रहता है. पिछले साल आंध्र प्रदेश में 12 वीं का रिजल्ट आने के 48 घंटे के अंदर 9 बच्चों ने आत्महत्या की, यह खबर है, लेकिन इसके अलावा सैकड़ों बच्चे होंगे जिन्होंने आत्महत्या नहीं की. इसका मतलब है कि उनकी प्रवृत्ति नहीं थी निराशा या डिप्रेशन की ओर जाने की, तो वो बच्चे बैलेंस्ड हैं, नॉर्मल हैं. उन बच्चों पर पैरेंट्स ने दबाव बनाया या नहीं यह अलग बात है, लेकिन बच्चे वह सह पाए या नहीं, ये मसला है. बच्चों की दो तरह की प्रवृत्ति को देखना चाहिए. पहली-मानसिक और दूसरी आध्यात्मिक. आध्यात्मिक का मतलब फिलोसॉफिकल नहीं, बल्कि यह है कि बच्चे का इंटरेस्ट है कि नहीं किसी सब्जेक्ट विशेष में, वह उसकी तरफ झुकाव या प्रवृत्ति रखता है कि नहीं?
पैरेंट्स न थोपें अपनी इच्छाएं
अपने बच्चे को अगर कोई सबसे ज्यादा जानता, समझता है, तो वह पैरेंट्स ही हैं। उसे क्या अच्छा लगता है और क्या खराब, इसे आपसे बेहतर भला कौन समझ सकता है। इसके बावजूद अगर आप ही बिना उसकी इच्छा/रुचि जानें, उस पर अपने मनमुताबिक चलने और पढ़ने का दबाव बनाते हैं, तो इसका मतलब यही होगा कि आपको उसकी खुशियों की चिंता बिल्कुल नहीं है। जरा सोचें, अगर वह आपके डर, लिहाज या सम्मान में आपकी बात मान भी लेता है, तब भी मन न लगने के कारण क्या वह उसमें अच्छा प्रदर्शन कर पाएगा? और तब इस खराब प्रदर्शन पर आपको कैसा लगेगा? बेशक इस पर आप गुस्सा होंगे, लेकिन इससे क्या होगा? वह तो आपके दबाव पर ही उस दिशा में पढ़ाई कर रहा था, पर रुचि न होने से वह परफॉर्म नहीं कर सका। बेमन से पढ़ाई करने के बाद फेल होने पर या फेल होने के डर और दबाव को सहन न कर पाने के कारण अगर वह कहीं ‘आत्महत्या’ जैसा कोई नकारात्मक कदम उठा लेता है, तब आप और पूरे परिवार पर क्या बीतेगी? आप तो अपनी संतान को भविष्य में सफलता की ऊंचाई पर देखना चाहते हैं ना, फिर क्यों नहीं उसकी पसंद को समझने का प्रयास करते और उसे उसी दिशा में आगे बढ़ने में उसके साथ खड़े होते हैं? उसकी शैतानियों के पीछे छिपे हुनर को देखें-जानें तो सही, वह आपको अपनी उपलब्धियों से चौंकाएगा भी और खुशियों से सराबोर भी कर देगा।
पैरेंट्स की तानाशाही घातक
कोई बच्चा है, जो आर्ट्स या पेंटिंग की तरफ जाना चाहता है, तो पैरेंट्स कहते हैं कि भूखों मरोगे, तुमको तो इंजीनियर बनना है. कोई बच्चा कहता है कि उसे प्रोफेसर बनना है, फिलॉसफी का या आध्यात्मिक विज्ञान का, तो पैरेंट्स कहते हैं कि तुझे बिजनेस करना है, कुछ पैरेंट्स कहते हैं कि तुमको तो एमबीए करना है, वो भी फलाने स्कूल या कॉलेज से ही, वरना हमारी नाक कट जाएगी. उसके बाद जब बच्चे कोचिंग में आते हैं, तो फिर दबाव. कोचिंग वाले भी कम दबाव नहीं देते कि रैंक लाओ. आदर्श हालत तो ये है कि स्कूल में बच्चों का मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर पैरेंट्स को सजेस्ट किया जाए. बताया जाए कि बच्चे की रुचि इस ओर या सब्जेक्ट में है और उसी को पढ़ाएं. कई बार ये होता है कि बच्चों की रुचि होती है, लेकिन ये जरूरी तो नहीं कि हरेक बच्चा टॉप ही करे. एक और भी मामला है. स्ट्रेस टॉलरेंस यानी कि तनाव झेलने का स्तर. जो तनाव स्कूल से आता है, मां-बाप से आता है, कोचिंग से आता है, पीयर ग्रुप से आता है…क्या वो बच्चा ये ले सकता है? हरेक आदमी का इतना स्तर नहीं होता. जो बच्चे इस तरह मानसिक रूप से बहुत कोमल या फ्रैजाइल होते हैं, संवेदनशील होते हैं, उसकी प्रवृत्ति अगर निराशावादी है, अगर उसकी फैमिली हिस्ट्री में कोई ऐसा है, तो उस बच्चे के भी उधर जाने का खतरा होता है. माता-पिता को कभी दबाव नहीं डालना चाहिए. कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो अच्छा नहीं कर पाते स्कूल लेवल या इंटरमीडिएट लेवल पर, लेकिन आगे चलकर वो बहुत चमकते हैं. एमए या पीएचडी में वो शाइन करते हैं. वो ज्यादा विश्लेषणात्मक होते हैं. बच्चे को जब चमकना होगा,तो चमकेगा. हालांकि, आप ये सोचिए कि जो तारा चमकता नहीं, क्या वह यूनिवर्स का हिस्सा नहीं…वह भी तो उसी आकाश का हिस्सा है।
टीचर करें प्रेरित-प्रोत्साहित
किसी भी स्टूडेंट को सही रास्ता दिखाने और उस पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरितकरने में टीचर की भी बहुत अहम भूमिका होती है। यह टीचर का नैतिक दायित्व भी है। सिर्फ बच्चे में गलतियां निकालने और उसे निकम्मा कहते रहने से आप न तो उसका कोई भला कर रहे हैं और न ही अपने अध्यापक धर्म का सही से निर्वाह कर रहे हैं। पैरेंट्स के बाद टीचर ही जान सकता है कि किस बच्चे में कौन-सा हुनर है या उसकी पसंद-नापसंद क्या है? इस बारे में टीचर बच्चों को प्रेरित करने के अलावा उनके पैरेंट्स को भी उन्हें उसी दिशा में आगे बढ़ाने का सुझाव दे सकते हैं। टीचर पूरे साल बच्चे के साथ रहते हैं। इसके अलावा, उन्हें दूसरे बच्चों से भी उनके बारे में राय मिलती रहती है। सिर्फ परीक्षा के अंकों को देखकर ही किसी बच्चे को को ब्रिलिंयंट या नकारा नहीं कहा जा सकता।
जानें अपने भीतर छिपा हुनर
परीक्षा में फेल हो जाने या कम अंक आने का यह मतलब कतई नहीं कि आप निकम्मे-नकारा हैं और आपको कुछ नहीं आता। अगर आपके पैरेंट्स, टीचर या कोई भी ऐसा कहता है तो उनकी बातों को दिल से लगाने की बजाय अपने भीतर छिपे हुनर को जानने-तराशने पर ध्यान दें। निश्चित रूप से आपके भीतर भी कोई न कोई हुनर जरूर होगा। क्या कहा? आपको नहीं पता। कोई बात नहीं। आप फिर से जरा अपनी रुचियों, पसंद-नापसंद, आदतों, दिनभर के व्यवहार, गतिविधियों आदि पर बारीकी से गौर करना शुरू कर दें। हफ्ते-दस दिन तक ऐसा करने से आपको पता चल जाएगा कि आपकी कौन-सी पसंद ऐसी है, जिसे आप जुनून की हद तक चाह सकते हैं। उसके लिए आप अपनी भूख-प्यास की परवाह भी नहीं करेंगे। एक बार इस जुनून को जान लेने के बाद उसी दिशा में खुद को आगे बढ़ाने का प्रयास करें। बिना निराश हुए। अपने आत्मविश्वास को लगातार बनाए रखते हुए, बढ़ाते हुए। कुछ दिन बाद आप अपने इसी जुनून की बदौलत अपने पैरेंट्स को चकित और खुश कर सकते हैं। आप जिस दिन ऐसा कर लेंगे, आपके पैरेंट्स आपको अपने पैशन की दिशा में आगे बढ़ने से कभी नहीं रोकेंगे।
बच्चों को खुला आकाश दें
हर वक्त बच्चे का आकलन नहीं करना चाहिए. हमें तो यह सोचना चाहिए कि बच्चा खुश है कि नहीं, बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य ठीक है या नहीं, बच्चा आनंद ले रहा है जीवन का या नहीं? अगर बच्चा गहरी नकारात्मकता में फंस गया है तो फिर वह आगे के जीवन में भी वैसा ही होगा. वह ऑफिस में भी वैसा ही होगा. बच्चों को मोटिवेट कीजिए. उनको बताइए कि उसके स्कूल में जो कुछ भी एप्टिट्यूड टेस्ट होता है, वह कीजिए. बच्चों की तारीफ करना, प्रोत्साहित करना, उनकी चमक पहचानना, ये अभिभावकों का कर्तव्य है. ये नहीं है कि उनका आत्मविश्वास शून्य कर दो, उनको राह दिखाकर डराते रहो. हालांकि, जिन बच्चों ने कुछ गलत कदम उठा लिया, मैं उनकी भी निंदा नहीं करती. बस, एक सलाह है उनके लिए. तुलना न करें और निंदा न करें. फलाना तेरे से अच्छा है, वो देखो कितनी जल्दी औऱ कितने बढ़िया ढंग से कर लेता है. ये तुलना गलत है. आप मनोवैज्ञानिक से मिलने की बात करेंगे तो तुरंत कहा जाएगा कि पागलों के डॉक्टर से मिलने को कह रहा है. भई, आप पंडित-मौलवी से मिलते हो, ताबीज वगैरह पहनते हो, टीचर्स से मिलते हो, उसी तरह किसी मनोवैज्ञानिक से मिलने की बात करें. आप किसी भी बच्चे से प्यार से बात करें और कहें कि वह अपने लिए पढ़े, अगर कोई टीचर ठीक नहीं पढ़ाता तो हम उसकी निंदा नहीं करेंगे, खुद मेहनत करेंगे, तुम बस रेगुलरली पढ़ो…तो देखिए, बच्चा कैसे नहीं पढ़ता है? होता क्या है? पहली क्लास से निंदा शुरू हो जाती है. तुम्हें गणित नहीं आता तो तुम बेकार हो. तुम्हें साइंस नहीं आता तो तुम बेवकूफ हो, यह सब बेकार की बात है. अगर बच्चा डांस में खुश है, तो ठीक है. आजकल स्किल डेवलपमेंट की बात हो रही है. हरेक का स्किल अपना होता है. बस, मुद्दे की बात है कि हरेक बच्चे को खिलने दें, उसे नीचा न दिखाएं, उसे प्रोत्साहित करें।
असफलताओं के बाद हासिल की सफलता
परीक्षाओं में खराब नतीजों से कभी परेशान नहीं होना चाहिए। देश-दुनिया में कई ऐसे लोग है, जिन्होंने असफलताओं के बाद ही सफलता हासिल की। एक चीज हम आपको बताना चाहते है कि दुनिया के सबसे तेज दिमाग शख्सितें शुरुआत में अक्सर असफल ही रहे है। लेकिन उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और आज दनिया में उनका बोल-बाला है। छात्रों को सिर्फ खुद को समझाना है। आइए कुछ ऐसे ही नाम हम आपको बताना चाहते है, जिन्होंने असफलताओं के दौर को झेला और आज पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।
बिल गेट्स : दुनिया का सबसे अमीर इंसान बिल गेट्स। हावर्ड कॉलेज में बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। इसके बाद अपना पहला बिज़नेस शुरू किया लेकिन वो बुरी तरह असफल साबित हुआ।
अल्बर्ट आइंस्टीन : वैज्ञानिक आइंस्टीन चार साल तक बोल और सात साल की उम्र तक पढ़ नहीं पाए थे। उन्हें एक सुस्त और गैर-सामाजिक छात्र के तौर पर देखे जाने लगा। इसके बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और ज़्यूरिच पॉलिटेक्निक में दाखिला देने से इंकार कर दिया गया। इन सब के बावजूद वे भौतिक विज्ञान की दुनिया में सबसे बड़ा नाम साबित हुए।
वॉल्ट डिज़्नी : डिज़्नी नाम किसने नहीं सुना होगा, लेकिन आपको यह सुनकर हैरानी होगी की जब ये नौकरी करते थे तो इन्हें यह कहकर निकाल दिया गया था कि उनके पास कल्पनाशीलता और नए विचार नहीं है। इसके बाद उन्होंने अपने व्यवसाय शुरु किए लेकिन दिवालिए हो गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आज देखिए उनके नाम से एक पूरा साम्राज्य चलता है, जिसके गवाह हम सब हैं।
रबिंद्रनाथ टैगोर : भारत की तरफ से इकलौते नोबल पुरस्कार जीतने वाले महान क़वि और साहित्यकार रबिंद्रनाथ टैगोर स्कूल में फेल हो गए थे। उनके शिक्षक उन्हें पढ़ाई में ध्यान न देने वाले छात्र मानते थे। लेकिन वही बाद में पूरे देश का गौरव साबित हुआ टैगोर । रबिंद्रनाथ टैगोर लिखा भी करते थे, जिसमें उन्होंने एक बार असफलताओं पर लिखा था कि ‘हर ओक का पेड़, पहले ज़मीन पर गिरा एक छोटा सा बीज होता है.’। ऐसे ही तमाम और नाम है, जो स्कूल-कॉलेजों में फेल होने के बाद भी कामयाब है।
जिंदगी अनमोल है, यह किसी कॉम्पिटिशन में फेल होने या हार पर गवां देना वाला विकल्प कतई नहीं है. लेकिन कई लोग इसे छोटी-छोटी बात पर दांव पर लगा देते हैं. खासकर बच्चे बहुत कम उम्र में छोटी-छोटी असफलताओं से हारकर जिंदगी से हार जाते हैं और सुसाइड जैसा खतरनाक रास्ता चुन लेते हैं. जीवन में मिलने वाली सफलता जहां आदमी के भीतर उत्साह और आत्मविश्वास पैदा करती है तो वहीं असफलता उसे एक बड़ी सीख या फिर कहें अनुभव देकर जाती है, जो उसे किसी किताब को पढ़ने से कभी प्राप्त नहीं हो सकता है, मनुष्य के जीवन में सफलता और असफलता धूप-छांव की तरह होती हैं, जो अक्सर आती-जाती रहती हैं. निश्चित तौर पर जीवन में मिलने वाली सफलता हमारे भीतर उत्साह और आत्मविश्वास पैदा करती है, लेकिन असफलता भी हमें कुछ न कुछ सिखाकर जाती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उससे सीख लेते हुए जीवन में आगे बढ़े. जीवन में कई बार मिलने वाली असफता लोगों की हताशा का बड़ा कारण बन जाती है। लोग अक्सर असफलता से घबराकर अपने आत्मविश्वास को खो देते हैं, लेकिन यदि हम बगैर डरे उस असफलता का सामना करें और उससे सीख लेते हुए एक बार फिर अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ें तो निश्चित रूप से हमें एक न एक दिन मनचाही सफलता जरूर मिलगी।