मनुष्य की चिंतनशैली असंतुलित-अशांत रहने पर उसके प्राणों की गति भी असंतुलित होती है, जिसका दण्ड सम्पूर्ण शरीर को रोग के रूप में भुगतना पड़ता है। पर इसका प्रभाव सबसे पहले उसके पाचन तंत्र पर पड़ता है। क्योंकि व्यक्ति द्वारा खाया हुआ अन्न अच्छी तरह पचता नहीं अथवा कभी-कभी पाचक तंत्र अधिक तीब्र हो जाता है और जठराग्नि बन जाती है।परिणामतः प्राणों के सूक्ष्मतम प्रवाह के साथ बिना पचे अन्न के परमाणु स्तर के कण भी घुलकर प्राणों तक जा पहुंचते हैं और वहां जमा होकर सड़ने लगते हैं, जो अंत में मानसिक रोग-‘आधि’ उत्पन्न करते हैं। इन्हीं आधियों से शारीरिक रोग-‘व्याधि’ उत्पन्न होते हैं। जानकारी के अभाव में व्यक्ति इन्हें ठीक करने के लिए बाहरी औषधियों का सहारा लेता है, जो कारगर साबित नहीं होते क्योंकि रोग तो उसकी मनोदशा में उपजे बिकारों का परिणाम होते हैं। इसके चलते व्यक्ति में बुढ़ापा जल्दी आ धमकता है। मनोविकार हमें बुजुर्ग न बनायें इसलिए कम उम्र में होने वाले रोगों के पीछे के कारणों को ध्यान देने की बात शरीर विज्ञानियों द्वारा कही जाती है। प्रसिद्ध मनोविश्लेषको ने पेट रोगियों में पाया कि ‘‘पेट रोग के अधिकांश व्यक्ति दूषित विचारों एवं मनः स्थिति वाले पाये गये। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यदि व्यक्ति मानसिक चिन्ताओं, दूषित विचारों एवं आवेगों से पीड़ित होगा, तो उसके पेट की क्रियाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ना सुनिश्चित है और बूढ़ा व्यक्ति तो सदैव पेट का रोगी बना रह सकता है। ऐसे में विकृत अवस्था से परिणाम का नकारात्मक आना सुनिश्चित है। बुजुर्गों में तो सामान्य रूप से लगातार थकावट अनुभव होती रहती है। सामान्यतः लोगों का मानना है कि थकान का कारण अत्यधिक शारीरिक श्रम करना है। लेकिन शरीर विशेषज्ञों के अनुसंधान बताता है कि थकावट का कारण शारीरिक परिश्रम नहीं, अपितु कार्य के दौरान विषम मनःस्थिति का होना प्रमुख कारण है। इसी के साथ उतावलापन, घबराहट, चिन्ता, हताशा-निराशा, अतिभावुकता, वैचारिक उलझनें आदि जीवन में थकान उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यत्ति द्वारा दो कदम चलना भी भारी हो जाता है।
ऐसा भी होता हैः
कभी-कभी भावनात्मक एवं मानसिक टूटन के कारण हुए अपच से सिर दर्द, चक्कर, मूत्रशय में सूजन जैसी बीमारियां, गले के दर्द, गर्दन दर्द, पेट एवं वायु विकार सम्बन्धी रोग से बुजुर्ग पीड़ित होने लगते हैं। अनेक विशेषज्ञों द्वारा शरीर और मन के सम्बन्धों को लेकर किये शोध कार्य का निष्कर्ष रहा कि शरीर में कोई रोग उत्पन्न नहीं हो सकता, जब तक कि मनुष्य का मन स्वस्थ है। उन्होंने मनःस्थिति और रोगों के बीच सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए बताया था कि जैसे ‘‘गठिया’’ का मूल कारण ईर्ष्या है। इसीप्रकार जो व्यक्ति निराश-हताशा में जीते हैं तथा सदैव दूसरों का छिद्रान्वेषण करते हैं, दोषारोपण के आदी होते हैं, वे कैंसर जैसे घातक रोग के शिकार होते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग सदैव कांपते, ठंड से सिकुड़ते देखे जाते हैं। अनावश्यक ठंडी लगती ही उन लोगों को है, जो दूसरो को सदैव परेशान करने में अधिक रुचि लेते हैं।
रोग के अन्य कारणः
‘‘स्नायुशूल’’ रोगी व्यावहारिक जीवन में आवश्यकता से अधिक स्वार्थी, खुदगर्ज तथा हिंसक होते हैं। इसी क्रम में हिस्टीरिया और गुल्म जैसे रोगों के शिकार भी किसी न किसी दुष्प्रवृत्ति के शिकार होते हैं। चोर, ठग-दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति को हताशा-निराशा घेरती है, अजीर्ण, झगड़ालू लोगों को होता है। तात्पर्य यह कि हर बीमारी मनुष्य की मानसिक विकृति का परिणाम है। आज संसार में रोग-शोक की बाढ़ है, उसका कारण विकृति और बुरे विचारों का व्यक्ति के मन के अंदर गहरी पैठ होना है। यदि मनुष्य अपनी मनःस्थिति को ऊर्ध्वगामी बना सके, तो अक्षय आरोग्यता का वह स्वामी बन सकता है। जीवन को मनचाही दिशा में नियोजित कर सकना, हंसी-खुशी का लाभ उठाना उसकी सहज जीवनरीति बन सकती है। हम सब शरीर, मन एवं भावना को रोग-शोक से मुक्त रखें और बुढ़ापे को आने से पहले ही रोक लें।