क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं।
संयम : यानि समय-समय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- वासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना।
संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना।
संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है।
संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना।
संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना।
सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है।
समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।
कैसे बनाएं अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल
पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।
पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।
जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं। जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।
गृहस्थी बसाने से पहले ये एक काम जरूर कर लें
विवाह एक दिव्य परंपरा है, गृहस्थी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। हम इसे सिर्फ एक रस्म के तौर पर न देखे। गृहस्थी बसाने के लिए सबसे पहले भावनात्मक और मानसिक स्तर पर पुख्ता होना होता है। हम अपने आप को परख लें। घर के जो बुजुर्गवार रिश्तों के फैसले तय करते हैं वे अपने बच्चों की स्थिति को समझें। क्या बच्चे मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक स्तर पर इतने सशक्त हैं कि वे गृहस्थी जैसी जिम्मेदारी को निभा लेंगे। जीवन में उत्तरदायित्व कई शक्लों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है शादी करके घर बसाना। गृहस्थ जीवन को कभी भी आवेश या अज्ञान में स्वीकार न करें, वरना इसकी मधुरता समाप्त हो जाएगी। आवेश में आकर गृहस्थी में प्रवेश करेंगे तो ऊर्जा के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है रिश्तों में क्रोध अधिक बहे, प्रेम कम। यदि अज्ञान में आकर घर बसाएंगे, तब हमारे निर्णय परिपक्व व प्रेमपूर्ण नहीं रहेंगे।
जब परिवार के साथ बैठें तो क्या हो बातचीत का विषय
जब भी हम परिवार के साथ बैठते हैं तो बातों का विषय क्या होता है। परिवार के सदस्यों में क्या और कैसी बातें होनी चाहिए। घर के सदस्य साथ बैठते हैं तो किसी तीसरे की बुराई नहीं करें। इससे परिवार में अंशाति और असंतुलन आता है। हम जब भी परिवार के साथ बैठें तो चर्चा के विषय ज्ञान, गुण, धर्म और भक्ति होना चाहिए। इससे आपसी प्रेम तो बढ़ेगा ही, विवाद की स्थिति भी नहीं होगी। परिवार में हमारा बैठना सार्थक होगा।
सुख-दुख भाग्य का नहीं, नजरिए का खेल है
इंसान को जो कुछ भी मिलता है, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार होता है। जीवन में प्राप्त हर चीज उसकी खुद की ही कमाई है। जन्म के साथ ही भाग्य का खेल शुरू हो जाता है। हम अक्सर अपने व्यक्तिगत जीवन की असफलताओं को भाग्य के माथे मढ़ देते हैं। कुछ भी हो तो सीधा सा जवाब होता है, मेरी तो किस्मत ही ऐसी है। हम अपने कर्मों से ही भाग्य बनाते हैं या बिगाड़ते हैं। कर्म से भाग्य और भाग्य से कर्म आपस में जुड़े हुए हैं। किस्मत के नाम से सब परिचित है लेकिन उसके गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जानता। भाग्य कभी एक सा नहीं होता। वो भी बदला जा सकता है लेकिन उसके लिए तीन चीजें जरूरी हैं। आस्था, विश्वास और इच्छाशक्ति। आस्था परमात्मा में, विश्वास खुद में और इच्छाशक्ति हमारे कर्म में। जब इन तीन को मिलाया जाए तो फिर किस्मत को भी बदलना पड़ता है। वास्तव में किस्मत को बदलना सिर्फ हमारी सोच को बदलने जैसा है।अपनी वर्तमान दशा को यदि स्वीकार कर लिया जाए तो बदलाव के सारे रास्ते ही बंद हो जाएगे। अब आगे यह तुम पर निर्भर है कि , अपने कर्र्मों से बदलो या हाथ पर हाथ धर कर बेठे रहो और रोते-गाते रहो कि मेरे हिस्से में दूसरों से कम या खराब आया है। भाग्यवाद और कुछ नहीं सिर्फ पुरुषार्थ से बचने का एक बहाना या आलस्य है जो खुद अपने ही मन द्वारा गढ़ा जाता है। यदि हालात ठीक नहीं या दु:खदायक हैं तो उनके प्रति स्वीकार का भाव होना ही नहीं चाहिये। यदि इन दुखद हालातों के साथ आप आसानी से गुजर कर सकते हैं तो इनके बदलने की संभावना उतनी ही कम रहेगी।