गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस हर साल 24 नवंबर को मनाया जाता है। वह सिख संतों के वंश में नौवें गुरु हैं। उन्हें हिंद की चादर या भारत की ढाल भी कहा जाता है। उन्होंने ऐसे लोगों के समुदाय के अधिकारों के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया जो उनके धर्म के भी नहीं थे। वर्ष 1675 में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर उनका सिर कलम कर दिया गया था। वह दिल्ली में चांदनी चौक पर शहीद हो गये।
धर्म को बचाने, हिंदूओं की रक्षा की खातिर भारत में कई महान पुरुषों ने अपना जीनव और प्राण न्यौछावर कर दिए, इन्हीं में से एक थे सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी. ये भारत के वो क्रांतिकारी पुरुष थे जिन्होंने धर्म, संस्कृति और मूल्यों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी. गुरु तेग बहादुर उस समय धार्मिक स्वतंत्रता के समर्थक थे, जब लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा था. आइए जानते हैं कौन थे गुरु तेग बहादुर, समाज में क्या है इनका योगदान. वीरता का जलवा दिखाने के बाद त्याग मल को तेग बाहदुर के नाम से पुकारा जाने लगा…..
गुरु तेग बहादुर कौन थे?
गुरु तेग बहादुर का जन्म वैसाख कृष्ण पंचमी (1 अप्रैल 1621) को पंजाब के अमृतसर मुगल सल्तनत में हुआ वह सिक्खों के छठे गुरु गुरु हरगोविंद की 6 संतानों में से एक थे। उनके बचपन का नाम ‘त्याग मल‘ था और उनकी माँ का नाम ‘माता नानकी‘ था। जब उनका जन्म हुआ तब अमृतसर सिक्खों की आस्था का केंद्र था। उन्हें सिख संस्कृति में तीरंदाजी और घुड़सवारी में प्रशिक्षित किया गया और वेदों उपनिषदों और पुराणों जैसे पुराने क्लासिक्स भी पढ़ाए गए।
विवाह और सांसारिक जीवन
गुरू तेग बहादुर का विवाह 3 फरवरी 1633 को ‘माता गुजरी‘ के साथ हुआ। जिनसे उन्हें एक पुत्र गुरु गोविंद राय (सिंह जी) की प्राप्ति हुई जो बाद में सिक्खों के 10वें गुरु बने। 1644 में उनके पिता गुरु हरगोबिंद की मृत्यु नजदीक आने पर गुरु हरगोबिंद अपनी पत्नी नानकी के साथ उनके पैतृक गांव बकाला, अमृतसर (पंजाब) में चले गए, साथ ही त्याग मल और उनकी पत्नी माता गुजरी भी गए। गुरु हरगोविंद जी की मृत्यु के बाद गुरु तेग बहादुर अपनी पत्नी और मां के साथ बकाला में ही रहते रहे, वह हमेशा से ही लंबे समय तक एकांत और चिंतन के मंत्र को प्राथमिकता देते थे। हालांकि वे बैरागी नहीं थे उन्होंने अपनी परिवारिक जिम्मेदारियों में हिस्सा लिया और बकाला के बाहर का भी दौरा किया तथा आनंदपुर साहिब नामक नगर बसाया और वहीं रहने लगे।
ऐसे बने सिक्खों के नौवें गुरू
मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ “करतारपुर की जंग” में मुगल सेना के खिलाफ अतुलनीय पराक्रम दिखाने के बाद उन्हें तेग बहादुर (तलवार के धनी) नाम मिला। इसके बाद सिखों के 8वें गुरु हरिकृष्ण राय की अकाल मृत्यु के बाद 16 अप्रैल 1664 को गुरु तेगबहादुर सिखों को नौवें गुरु बने। कश्मीरी हिंदुओं के जबरन मुश्लिम बनाने पर गुरू जी ने औरंगजेब का विरोध किया और हिंदू धर्म की रक्षा और हिंदु एकता को जगाने के लिए उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया इसलिए उनको ‘हिंद की चादर’ (भारत की ढाल) कहा जाता है। अपनी शहादत से पहले गुरु तेग बहादुर ने 8 जुलाई 1975 को गुरु गोविंद सिंह जी को सिखों का दसवां गुरु नियुक्त कर दिया था। सिक्खों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखें गए 115 शबद शामिल हैं।
क्यों कहलाते हैं ये ‘हिंद दी चादर’
गुरु तेग बहादुर की मुगल बादशाह औरंगजेब से सांघातिक विरोध की शुरुआत कश्मीरी पंडितों को लेकर हुई। कश्मीरी पंडित मुगलों द्वारा जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन (हिन्दू से मुस्लिम बनाए जाने) के जुल्म सह रहे थे। सैकड़ों कश्मीरी पंडितों का जत्था पंडित कृपा राम के साथ आनंदपुर साहिब पहुँचा और गुरु तेग बहादुर से अपनी रक्षा की गुहार लगाई। गुरु तेग बहादुर ने कहा कि धर्म की रक्षा के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को बलिदान देना होगा जिसके बलिदान से लोगों की आत्मा जाग जाएं, क्योंकि तभी गुलामी और भय से ग्रस्त ये लोग जाग सकेंगे और अपनी कायरता और डर को भुलाकर अपने धर्म की रक्षा के लिए हँसते-हँसते मौत को गले लगा सकेंगे। औरंगजेब के हिन्दूओं पर किए जा रहे अत्याचारों और अपने पिता की बात सुन गुरु जी के नौ वर्षीय पुत्र (गुरु गोविंदसिंह) ने कहा कि उनकी नज़र में इस काम के लिए आपसे बेहतर कोई और नहीं हो सकता। गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों पर धर्म परिवर्तन के लिए हो रहे औरंगजेब के जुल्मों और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान देने का निर्णय लिया। और औरंगजेब तक यह संदेशा पहुंचाने हो कहा कि यदि गुरु तेगबहादुर इस्लाम कबूल लेंगे तो वे सब भी इस्लाम स्वीकार लेंगे।
गुरु तेग बहादुर के बलिदान की साहसिक गाथा
जुलाई 1675 में गुरु तेग बहादुर अपने तीन अन्य शिष्यों के साथ अपने हत्यारे के पास स्वंय चलकर पहुंचे। इतिहासकारों की माने तो गुरु तेग बहादुर को औरंगजेब की फौज ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद उन्हें करीब तीन-चार महीने तक कैद कर रखा गया और बाद में पिंजड़े में बंद कर 04 नवंबर 1675 को मुगल सल्तनत की राजधानी दिल्ली लाया गया। औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर से इस्लाम स्वीकार करने को कहा, तो गुरु साहब ने जवाब दिया: सीस कटा सकते है केश नहीं। उन्हें डराने के लिए उनके साथ गिरफ्तार किए गए भाई मति दास के शरीर को आरे से जिन्दा चीर दिया गया, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाल दिया गया और भाई सति दास को कपास में लपेटकर जिंदा जलवा दिया गया। इसके बावजूद उन्होंने जब इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो आठ दिनों तक यातनाएं देने के बाद मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक पर भीड़ के सामने गुरु तेग बहादुर जी का सर कटवा दिया था।
गुरु तेगबहादुर शहादत दिवस कब और क्यों मनाते है?
इतिहास में धर्म, सिद्धांत और मानवता की रक्षा के लिए निस्वार्थ बलिदान के कारण हर साल 24 नवम्बर को सिक्खों के नौवें गुरुश्री गुरु तेग बहादुर की पुण्यतिथि को ‘शहादत दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। औरंगजेब ने इस्लाम स्वीकार न करने पर चांदनी चौक पर उनका सिर कलम करवा दिया था। इस साल 2023 में गुरु तेग बहादुर शहादत दिवस 24 नवंबर रविवार के दिन हैं। वैसे तो गुरु तेग बहादुर 24 नवंबर 1675 को शहीद हुए लेकिन कुछ इतिहासकारों के मुताबिक वे 11 नवंबर 1675 को शहीद हुए माने जाते हैं। भारत में उनका शहीदी पर्व प्रति वर्ष 24 नवंबर मनाया जाता है। उनकी शहादत का यह दिन हमें उनके बलिदान, त्याग और सहनशीलता की याद दिलाता है, साथ ही जुल्म, अन्याय व अत्याचार के खिलाफ और धर्म की रक्षा के लिए डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देता है।
दिल्ली में कौन सा स्थान गुरु तेग बहादुर के बलिदान से जुड़ा है?
हिंदू धर्म की रक्षा के लिए गुरु तेगबहादुर ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था, दिल्ली में 24 नवंबर 1675 को लाल किले के सामने जिस चाँदनीं चौक पर उन्हें औरंगजेब ने शहीद कराया उसी स्थान पर आज सिक्ख धर्म की आस्था से जुड़ा ‘गुरुद्वारा शीश गंज साहिब‘ स्थित है। इसके आलावा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उस स्थान की याद दिलाता हैं जहाँ गुरुजी का अन्तिम संस्कार किया गया।
गुरु तेग बहादुर की मृत्यु कब और कैसे हुई?
उनकी मृत्यु 24 नवंबर 1675 को औरंगजेब के आदेश पर उनका सिर कलम किए जाने से हुई, उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। गुरुजी हमेशा से ही कश्मीरी हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर जबरन उन्हें मुस्लिम बनाने के खिलाफ थे और स्वयं भी इस्लाम कबूलने से इनकार कर दिया था।
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