साड़ी भारतीय महिलाओं की शान और हमारी संस्कृति का प्रतीक है. यह पहनावा हमारी संस्कृति और परंपरा की आत्मा है.World Saree Day 2025 के मौके पर आज आइए जानते हैं साड़ी की कहानी, इतिहास और भारत में इसके अलग-अलग रूप।
हर साल 21 दिसंबर को विश्व साड़ी दिवस मनाया जाता है. इस दिन महिलाएं अपनी पसंदीदा साड़ी पहनकर भारतीय संस्कृति और परंपरा का सम्मान करती हैं. सोशल मीडिया पर लोग अपनी साड़ी की तस्वीरें शेयर करते हैं और इसके इतिहास को दुनिया के सामने पेश करते हैं. कह सकते हैं कि साड़ी केवल कपड़ा नहीं, बल्कि हमारी पहचान, शिल्पकला और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है. साड़ी की शुरुआत ‘सत्तिका’ नामक परिधान से हुई, जिसका उल्लेख जैन और बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. दरअसल, साड़ी महिलाओं के लिए सिर्फ एक वस्त्र नहीं, बल्कि हजारों सालों से चली आ रही एक खूबसूरत कहानी की तरह है. सभ्यता की शुरुआत से ही यह परिधान महिलाओं की पहचान और खूबसूरती का हिस्सा रहा है. बिना सिला हुआ यह कपड़ा आज भी भारतीय संस्कृति और एलिगेंस की सबसे मजबूत निशानी माना जाता है. चाहे पुरानी पत्थर की मूर्तियों में दिखने वाली साड़ी हो या आज के मुंबई फैशन वीक की रैंप पर नजर आने वाली साड़ी, इसका आकर्षण कभी कम नहीं हुआ. साड़ी पुराने जमाने की कारीगरी और आज के फैशन का परफेक्ट मेल है. पहली बार साड़ी पहनने वाली हों या सालों से इसकी दीवानी, साड़ी का इतिहास और इसका सफर आज भी हर किसी को अपनी ओर खींचता है. ऐसे में सवाल उठता है कि इसका क्या इतिहास है?
साड़ी की शुरुआत और शुरुआती इतिहास
साड़ी का इतिहास इंडस वैली सिविलाइजेशन यानी सिंधु घाटी सभ्यता (करीब 2800–1800 ईसा पूर्व) से जुड़ा माना जाता है.अगर गिनती करें तो आज से करीब 5000 साल पहले की यह बात है. यही वो दौर था जब इंसान ने पहली बार बुनाई और कपड़ा बनाने की कला सीखी. पुरातात्विक खुदाई में 5वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व के कॉटन फाइबर मिले हैं, जो बताते हैं कि उस समय लोग कपड़े बनाने में काफी माहिर थे. उस दौर की पत्थर की मूर्तियों और आकृतियों में महिलाओं को ढीले-ढाले कपड़े में लिपटा हुआ दिखाया गया है. कमर पर लपेटा जाने वाला कपड़ा अंतरिय, कंधों या सिर पर डाली जाने वाली ओढ़नी उत्तरिय, और सीने को ढकने वाला स्तनपट्ट-यही साड़ी की शुरुआती बनावट मानी जाती है।
World Saree Day का महत्व
हर साल 21 दिसंबर को मनाया जाता है. इस दिन महिलाएं अपनी पसंदीदा साड़ी पहनकर भारतीय संस्कृति और परंपरा का सम्मान करती हैं. सोशल मीडिया पर लोग अपनी साड़ी की तस्वीरें शेयर करते हैं और इसके इतिहास को दुनिया के सामने पेश करते हैं. इस तरह कह सकते हैं कि साड़ी केवल कपड़ा नहीं, बल्कि हमारी पहचान, शिल्पकला और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है।
साड़ी का प्रारंभिक रूप: ‘सत्तिका’
साड़ी की शुरुआत ‘सत्तिका’ नामक परिधान से हुई, जिसका उल्लेख जैन और बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. सत्तिका तीन टुकड़ों में होती थी:
अंत्रिय – निचला परिधान, आज की घाघरा या लेहंगा की तरह.
उत्तरिय – कंधे या सिर पर डाली जाने वाली ओढ़नी, आज की दुपट्टा.
स्तनपट्ट – सीने पर बांधा जाने वाला पट्टा, आज की चोली.
इस तीन-टुकड़ों वाले सेट को संस्कृत साहित्य और बौद्ध पाली साहित्य में 6वीं सदी ईसा पूर्व से देखा गया. समय के साथ अंत्रिय ने धोती और फिशटेल स्टाइल का रूप लिया, उत्तरिय दुपट्टा में विकसित हुई और स्तनपट्ट चोली में बदल गई।
ऋग्वेद (करीब 1500 ईसा पूर्व- गणना करें तो यह करीब 3520–3525 साल पहले) में भी कपड़े को लपेटकर पहनने का ज़िक्र मिलता है, जिसे परिधान कहा गया है. वहीं संस्कृत ग्रंथों में शाटिका शब्द मिलता है, जिसे आज की साड़ी का पुराना रूप माना जाता है. बिना सिले कपड़े का यही तरीका साड़ी को खास बनाता है, क्योंकि इसे कई तरह से पहना जा सकता है। इतना ही नहीं, 3000 ईसा पूर्व तक भारतीय कॉटन की मांग मेसोपोटामिया जैसे देशों तक पहुंच चुकी थी. यानी साड़ी और भारतीय कपड़े की पहचान बहुत पहले ही दुनिया तक पहुंच गई थी.
समय के साथ साड़ी का सफर
साड़ी का सफर भारत के अलग-अलग साम्राज्यों के साथ आगे बढ़ता रहा. मौर्य काल (321–185 ईसा पूर्व) में बुनाई की तकनीक और भी बेहतर हुई और व्यापार के रास्ते खुले. उस समय की मूर्तियों में महिलाएं सलीके से साड़ी जैसे परिधान में नजर आती हैं।
गुप्त काल (320–550 ईस्वी) को भारतीय संस्कृति का सुनहरा दौर कहा जाता है. इस समय साड़ी और भी खूबसूरत हो गई. अजंता की गुफाओं की पेंटिंग्स में महिलाएं रेशमी साड़ियों में दिखती हैं, जिन पर सोने के धागों का काम नजर आता है।
मध्यकाल में भारत के अलग-अलग इलाकों की साड़ियाँ अपनी पहचान बनाने लगीं. बंगाल की हल्की मलमल, गुजरात की रंग-बिरंगी बंधनी और महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी, हर जगह की साड़ी वहां की कला और परंपरा को दिखाने लगी।
मुगल काल (16वीं से 19वीं सदी) में साड़ी में फारसी शान जुड़ी. ज़री, कढ़ाई और पैस्ले डिज़ाइन का चलन बढ़ा. इसी दौर में सिलाई वाली चोली का चलन भी शुरू हुआ, जो आज के ब्लाउज़ का आधार बनी। हर दौर ने साड़ी को कुछ नया दिया और यही वजह है कि साड़ी आज भी ज़िंदा परंपरा बनी हुई है।
भारत में साड़ी का इतिहास-
साड़ी का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी खुद भारतीय सभ्यता. सिंधु घाटी से लेकर मंदिरों की नक्काशी और टेराकोटा मूर्तियों तक, हर जगह महिलाओं को बिना सिले कपड़े में दिखाया गया है, जो आगे चलकर साड़ी बनी. जैसे-जैसे राजवंश बदले, वैसे-वैसे साड़ी का रूप भी बदलता गया. बंगाल की मलमल इतनी हल्की होती थी कि उसे “हवा में बुना हुआ कपड़ा” कहा जाता था. गुजरात में बंधनी की गांठों और रंगों ने साड़ी को त्योहारों का हिस्सा बना दिया. दक्षिण भारत में कांचीपुरम सिल्क साड़ी शादी और खास मौकों की पहचान बन गई. साड़ी सिर्फ पहनावा नहीं, बल्कि रस्मों और भावनाओं से भी जुड़ी रही है. शादी में लाल रंग, शुभ अवसरों पर पीला और शोक में सफेद—हर रंग का अपना मतलब रहा है।
ब्रिटिश दौर में मशीन से बने कपड़ों ने हथकरघा को नुकसान पहुंचाया, लेकिन साड़ी फिर भी बनी रही. इस समय साड़ी आज़ादी और आत्मनिर्भरता की पहचान भी बनी. 19वीं सदी के अंत में आंध्र प्रदेश से निकला निवी ड्रेप आज सबसे ज़्यादा पहना जाने वाला साड़ी स्टाइल बन गया. आजादी के बाद महात्मा गांधी ने खादी और हैंडलूम को बढ़ावा दिया और साड़ी को स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक बना दिया. आज भले ही साड़ी को नए फैब्रिक और स्टाइल में पहना जा रहा हो, लेकिन इसकी आत्मा वही है. छह गज का यह कपड़ा आज भी भारत की परंपरा, मजबूती और खूबसूरती की कहानी कहता है.
भारत की प्रमुख साड़ियां और उनकी खासियत-
बनारसी सिल्क साड़ी (उत्तर प्रदेश)
यह साड़ी सुनहरी और चांदी की जरी, भारी कढ़ाई और शाही डिज़ाइन के लिए जानी जाती है. शादी-ब्याह और बड़े समारोहों में इसे पहनना बहुत शुभ माना जाता है।
कांचीपुरम सिल्क साड़ी (तमिलनाडु)
शुद्ध रेशम से बनी यह साड़ी मजबूत बुनावट और गहरे रंगों के लिए प्रसिद्ध है. धार्मिक अवसरों और पारंपरिक शादियों में इसकी खास जगह है।
पटोलि साड़ी (गुजरात)
डबल इकत तकनीक से बनी यह साड़ी बेहद बारीक और रंग-बिरंगे पैटर्न वाली होती है. इसे खास मौकों और पारंपरिक समारोहों में पहना जाता है।
नौवारी साड़ी (महाराष्ट्र)
नौ गज लंबी यह साड़ी पारंपरिक मराठी स्टाइल में पहनी जाती है. त्योहारों और धार्मिक आयोजनों में यह महिलाओं की पहचान मानी जाती है।
पैठणी साड़ी (महाराष्ट्र)
रेशम और सोने की जरी से बनी पैठणी साड़ी अपने मोर और फूलों वाले डिज़ाइन के लिए मशहूर है।
चंदेरी साड़ी (मध्य प्रदेश)
हल्की और पारदर्शी चंदेरी साड़ी गर्मियों के लिए परफेक्ट मानी जाती है. इसमें सिल्क और कॉटन का खूबसूरत मिश्रण होता है।
महेश्वरी साड़ी (मध्य प्रदेश)
सिंपल बॉर्डर और ज्योमेट्रिक डिज़ाइन वाली यह साड़ी रोज़मर्रा और ऑफिस वियर के लिए पसंद की जाती है।
बलबूचरी साड़ी (पश्चिम बंगाल)
पौराणिक कथाओं और कहानीनुमा डिज़ाइन के लिए जानी जाने वाली यह साड़ी खास अवसरों पर पहनी जाती है।
सांबलपुरी / इकत साड़ी (ओडिशा)
टाई-डाई तकनीक से बनी यह साड़ी अपने यूनिक पैटर्न और गहरे रंगों के लिए मशहूर है।
तांत साड़ी (पश्चिम बंगाल)
हल्की कॉटन साड़ी, जो गर्म और उमस वाले मौसम में रोज़मर्रा पहनने के लिए बेहतरीन मानी जाती है।
आज साड़ी सिर्फ पारंपरिक पहनावा नहीं रही. इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया पर महिलाएं इसे ग्लैमरस स्टाइल में पहनकर फैशन ट्रेंड सेट करती हैं. बेल्ट, शॉर्ट टॉप और नए ड्रेपिंग स्टाइल के साथ साड़ी अब मॉडर्न और ट्रेंडी लगती है. साड़ी की यह खूबसूरती पारंपरिकता और आधुनिकता का अद्भुत संगम है।World Saree Day 2025 पर आइए हम सभी मिलकर इस अद्भुत भारतीय विरासत को सेलिब्रेट करें. साड़ी केवल कपड़ा नहीं, बल्कि हमारी पहचान, हमारी संस्कृति और हमारी शान है।




