भिलाई नगर। श्री राधाकृष्ण मंदिर प्रांगण, नेहरू नगर में 11 जनवरी तक शाम 4 बजे से शाम 5.30 बजे तक चलने वाले दुर्लभ सत्संग के छठवें दिन ऋषिकेश, उत्तराखंड से पधारे प्रवचनकर्ता श्रद्वेय स्वामी श्री विजयानन्द गिरी जी ने कहा कि जिस प्रकार किसी वस्तु के छूट जाने के बाद व्यक्ति उस वस्तु को वापस लेने के लिए उसी स्थान पर पुनः जाता है। उस वस्तु से व्यक्ति मोह के बंधन से बंधा होता है। ठीक उसी प्रकार इस दुनिया में मानव दुबारा मोह के बंधन में बंधकर ही आता है।
भोग और संग्रह नामक दो बीमारियों से मानव ग्रसित है। व्यक्ति धन संग्रह में लगे हुए है। धन को खा, पी नहीं सकते है और ना ही मरने पर अपने साथ ले जा सकते है। इसलिए धन किसी काम नहीं आता, काम आता है तो रूपयों का सदुपयोग। जितने धन से मनुष्य का पेट भर जाए, उतने हिस्से पर ही उस मनुष्य का व्यक्तिगत अधिकार है।
धन के सदुपयोग से धन और मानव दोनों का कल्याण हो जाएगा। जो चींज मिल कर बिछड़ जाता है, जिस पर अपना नियंत्रण नहीं होता वो अपनी नहीं होती। जो हमारे साथ रहे, जिनके साथ हम रहे, जो सदैव हमारे साथ रहे, वो हमारा है। ईश्वर ही है जो सदैव हमेशा साथ रहेंगे।
दान छपाकर नहीं, छिपाकर करें। दान करने में दिखावा न करें। दान पाने वालों को पता न लग पाएं कि दान किसने दिया, वास्तव में दान ऐसे करें। मरण सैय्या में धन के ध्यान आ जाने से व्यक्ति को दुबारा संसार में आना ही पड़ेगा। संसार में सब ईश्वर का है, इसलिए भगवान के वस्तु को अपना मानना छोड़ दे। मेरा है की भावना का त्याग कर दें तो मानव निहाल हो जाएगा। जो ईश्वर के चरणों में अपना सबकुछ अर्पण कर देता है, उसका परमात्मा के हृदय में वाश ठीक उसी प्रकार से हो जाता है जैसे लोभी के हृदय में धन का वाश हो जाता है। संसार में मालिक बनकर न रहे, मालिक तो परमात्मा है। मालिक की तरह चिंतन छोड़ केवल मैनेजर बनकर आनंद में रहे।
ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देने मात्र से वस्तु प्रसाद बन जाता है। इसलिए अपने नाते, रिश्तो, धन, जमीन, जायदाद को ईश्वर को चरणों में अर्पण कर दे वे प्रसाद स्वरूप हो जाएंगे। मानव मस्तिष्क पर भोजन का असर होता है, इसलिए सात्विक धन अर्थात् मेहनत के पैसों से आनाज खरीदें। अन्य माध्यमों से प्राप्त धन दूषित होता है, उससे खरीदा अनाज भी दूषित होगा और उसका सेवन करने वाले सभी का मस्तिष्क दूषित हो जाएगी। ईश्वर का ध्यान करते हुए भोजन तैयार करें, इस दौरान कदापि हिंसा, क्रोध या गलत विचार न आने दे। साधु-संतों को अन्न, वस़्त्र दान में मिल ही जाता है इससे अधिक की आवश्यकता साधु को नहीं होती, इसलिए साधु-संतों को कदापि धन का दान न करें। अन्नदान ही महादान है। गले में कंठी, मस्तक में तिलक, एकादशी व्रत, मंत्र जाप और भगवान को भोग लगाने के बाद खाने वाला वैष्णव होता है, उसका जीवन निहाल होना तय है। भगवान को भोग लगाकर किया हुआ भोजन प्रसाद स्वरूप हो जाता है, इसलिए भोजन के पूर्व ईश्वर को भोग अवश्य लगाएं। प्रेम भाव से अर्पित किए गए भोग को भगवान भाव रूप से अवश्य स्वीकार करते हैं। समापन श्रीकृष्ण जी की आरती के साथ हुआ। तत्पश्चात् प्रसाद वितरण किया गया। आयोजक समिति के प्रमुख बृजमोहन उपाध्याय ने कथा स्थल पर गीता प्रेस के स्टाॅल में उपलब्ध धार्मिक साहित्यों के लाभ लेने की अपील की है।
दान छपाकर नहीं, छिपाकर करेंः स्वामी विजयानंद गिरी,,,,,,दुर्लभ सत्संग का छठवां दिनः ईश्वर के चरणों में जो अपना सबकुछ अर्पण कर देता है,,,,,, उसका परमात्मा के हृदय में वाश हो जाता है
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